दाइज ऐसा देना बाबुल
जिससे तन-मन जले नहीं
दर्द-वेदना के सिक्कों से
जो बेबस हो तुले नहीं
ना गुलाब की कलियां न्यारी
स्वर्णहार ना चूड़मणि
नहीं मुलायम गद्दी, सोफे
नहीं रेशमी लाश बुनी
देना बाबुल ऐसा ताला
जो बुद्धि पर लगे नहीं
अम्लान रूढि़यों की ठोकर से
जो बेदम हो खुले नहीं
लाड़-प्यार चाहे ना देना
ना लेना मेरी पोथी
जनमजली ना करना मुझको
शिक्षा बिन सब हैं रोती
देना बाबुल खूब दुआएं
ज्ञान दीप ले सदा चलूं
सुंदरतम है दाइज यह तो
दूध नहाउं पूत फलूं
बिना ज्ञान के विदा ना होऊं
काठ की हांडी बनी जलूं
समय सुहागा उड़ता जाए
यह दाइज अब ना खोऊं
(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
देना बाबुल ऐसा ताला
जो बुद्धि पर लगे नहीं
अम्लान रूढि़यों की ठोकर से
जो बेदम हो खुले नहीं
लाड़-प्यार चाहे ना देना
ना लेना मेरी पोथी
जनमजली ना करना मुझको
शिक्षा बिन सब हैं रोती..
प्रेरक पंक्तियों के पिए बधाई, आदरणीय राजेश भाई जी. ..
सादर, बिलकुल सही बेटी को पैत्रक सम्पत्ति मिलना ही चाहिए. वर पक्ष द्वारा विवाह में उड़ाने की बात समझ नहीं आयी.
आदरणीय राम शिरोमणि जी, रक्ताले जी, वन्दना जी, केवल प्रसाद जी, सीमा जी एवं कुंति मुखर्जी जी रचना का संज्ञान लेने के लिए बहुत आभार । आदरणीय रक्ताले साहब मैंने दहेज विरोध को केंद्र में रखना नहीं चाहा है क्योंकि मूलत: मैं इसका विरोधी नहीं हूं हां समाज से यह अपेक्षा जरूर रखता हूं कि बहुतेरे ऐसे राज्य हैं जहां बेटियों को पैतृक संपत्ति का अधिकार नहीं दिया जाता जो मेरे और कानून दोनों के हिसाब से गलत है, वहां उन्हें वह भाग उनके नाम से मिलना चाहिए ना कि वर पक्ष को विवाह में उड़ाने के लिए, सादर
बहुत सुन्दर आदरणीय राजेश झा जी।बहुत मार्मिक रचना,बधाई स्वीकारें।
लाड़-प्यार चाहे ना देना
ना लेना मेरी पोथी.............बिलकुल सही यही समय की मांग है.
आदरणीय राजेश कुमार झा साहब बहुत मार्मिक रचना भावों में बहा ले जा रही है.वाह! मगर कुछ वे लडके भी तो समझें जो स्वयं या दहेज लोभी माता पिता के साथ खड़े होते हैं. सुन्दर भावपूर्ण रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकारें.
आदरणीय मित्र राजेश कुमार झा जी, बहुत सुन्दर भाव। समसामयिक विषय बेहतरीन नजीर, बधाई स्वीकारें।
बहुत सुन्दर विषय चुना राजेश जी स्त्री स्वतन्त्रता के नारों की अपेक्षा स्त्री शिक्षा और जाग्रति के नारों की ज्यादा आवश्यकता है इस देश में बिना विवेक और शिक्षा ,स्वतन्त्रता किसी ज़ंजीर से कम नहीं होती ........
बहुत मार्मिक रचना .राजेश कुमार जी , दहेज तो समाज का अभिशाप है .
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