हे लक्ष्मण तू बड़भागा है श्री राम शरण में रहता है ,
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !
प्रभु इच्छा से ही संभव है प्रभु सेवा का अवसर मिलना ,
हैं पुण्य प्रताप तेरे लक्ष्मण प्रभु सेवा अमृत फल चखना ,
मेरा उर व्यथित होकर के क्षण क्षण ये मुझसे कहता है !
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !
कैकेयीनंदन होने का महा कलंक मुझ पर है लगा ,
पर ह्रदय साक्षी मेरा है 'श्री राम से बढ़कर नहीं सगा ',
ह्रदय व्यथा ही प्रकट करता जब नयन से अश्रु बहता है !
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !
मैं चित्रकूट में आया था प्रभु को लौटा ले जाऊंगा ,
निज-निज धर्म बना बेडी अब चौदह बरस निभाऊंगा,
प्रभु -पादुका शीश पे धर प्रभु के अधीन हो लेता है !
ये भरत अभागा पापी है प्रभु से वियोग जो सहता है !
"मौलिक व अप्रकाशित"
शिखा कौशिक 'नूतन'
Comment
आदरणीया शिखा जी सादर, बहुत सुन्दर रचना है जैसे पूरा दृश्य ही सामने खडा कर दिया है. आदरेया डॉ. प्राची जी का कहना बिलकुल उचित लगता है बहुत थोड़े से सुधार से यह रचना पुरे जोश के साथ गाई जा सकती है. जरूर इस पर प्रयास करें. अभी तो इतनी सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
आदरणीया शिखा जी सादर
बहुत ही सुन्दर मर्म प्रस्तुतु किया है आपने इस रचना के माध्यम से
उसके लिए सादर बधाई स्वीकारें
तत आदरणीया डॉ प्राची जी के कहे से सह्मत हूँ
प्रवाह को और साधने का प्रयास कीजिये
सादर
प्रिय शिखा जी
आपकी रचनाओं का हमेशा इंतज़ार रहता है... कथ्य हृदय के बहुत करीब लगता है..
इस रचना का कथ्य भी वैचारिकता के एक उत्कृष्ट आयाम को शब्द देता है
प्रभु राम का सानिध्य लक्ष्मण का सौभाग्य और उनके विछोह भारत का हतभाग्य...
समुच्चय में रचना प्रभावशाली है, पर गेयता बहुत बाधित है... आप रचनाकर्म में गेयता पर भी खास ध्यान देती चलें
सस्नेह शुभेच्छाएँ
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