छोड़ आए गाँव में वो, ज़िंदगानी याद है।
सौंपकर पुरखे गए जो, वो निशानी याद है।
गाँव था सारा हमारा, ज्यों गुलों का इक चमन,
शीत, गर्मी, बारिशों की, ऋतु सुहानी याद है।
एक हो खाना खिलाना, रूठ जाने की अदा,
फिर मनाने मानने की, वो कहानी याद है।
छुप-छुपाते, खिलखिलाते, हँस हँसाते रात दिन,
फूल, बगिया, बेल-चम्पा, रात रानी याद है।
मुँह अँधेरे, त्याग बिस्तर, भागना भूले कहाँ?
हाथ में माँ से मिली, गुड़ और धानी याद है।
ज्ञान गुण के बोध का, कितना सुखद अहसास वो,
जो बुजुर्गों ने हमें दी, सीख वानी याद है।
आ गया उस गाँव में, झोंका अचानक लोभ का,
जब शहर ने छीन ली, हमसे जवानी याद है।
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
वेदिका जी, हार्दिक आभार...अच्छा है आप गाँव में हैं। फर्क तो शहर में रहने से पता चलता है की कुछ पाने के लिए कितना खोना पड़ता है।
आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, वक्त के बदलाव पर कही सुन्दर गजल. हर शेर मस्त है. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
बहुत खूब आदरणीय कल्पना जी!
आ गया उस गाँव में, झोंका अचानक लोभ का,
जब शहर ने छीन ली, हमसे जवानी याद है।//
अब गाँव में रह रही हूँ तो गाँव की सुखदायी बातें अच्छी लगती है ....बहुत अच्छी ...
शुभकामनायें
आदरणीय बृजेश कुमार जी, हृदय से धन्यवाद आपका...
आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी, सुंदर टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार...
आ गया उस गाँव में, झोंका अचानक लोभ का,
जब शहर ने छीन ली, हमसे जवानी याद है।
लाजवाब शेर ....ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई|
कल्पना जी बहुत सुन्दर गज़ल कही आपने। मेरी ढेरों बधाई स्वीकारें।
//आ गया उस गाँव में, झोंका अचानक लोभ का,
जब शहर ने छीन ली, हमसे जवानी याद है।//
इन पंक्तियों के लिए विशेष तौर पर बधाई स्वीकारें।
आदरणीय अभिनव अरुण जी, यह गजल,चुपके चुपके... मुझे बहुत प्रिय है, इसी को याद करते हुए ही यह रचना तैयार की है। आपका हार्दिक धन्यवाद ...
केवल प्रसाद जी, हार्दिक आभार...
प्राची जी, बहुत बहुत धन्यवाद ...
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