छंद झूलना
(२६ मात्रा, ७,७,७,५ पर यति , चार पद , अंत गुरु लघु )
गुरु ज्ञान दो, उत्थान दो, वंदन करो स्वीकार
अनुभव प्रवण, उज्ज्वल वचन, हे ईश दो आधार
तज काग तन, मन हंस बन, अनिरुद्ध ले विस्तार
प्रभु के शरण, जीवन- मरण, पाता सहज उद्धार.....
Comment
आदरणीय राजेश कुमार झा जी , रचना के भाव व ले प्रवाह की सहजता आपको पसंद आयी यह जान मन उत्साहित है ..हार्दिक आभार
आदरेया डॉ. प्राची जी सादर बहुत सुन्दर झूलना छंद. आपने रचा भी बहुत सुन्दर है. एक जानकारी और दें, क्या सभी पदों के पहले और दुसरे चरण का तुक भी सामान होना आवश्यक है?
नवीन छंद से परिचय कराने के लिए हार्दिक आभार. और एक सुन्दर झूलना छंद रचाने के लिए हार्दिक बधाई.
नया छंद मेरे लिए, पूरा विधान देकर आपने हमपर बड़ा उपकार किया । प्रभु को निवेदित इस छंद में सहजता लय प्रवाह सबकुछ बहुत ही सुंदर लगा, सादर
प्रिय वंदना तिवारी जी,
रचना के भावों पर आपसे सराहना मिली, इस हेतु हार्दिक आभारी हूँ
प्रिय राम शिरोमणि पाठक जी
इस छंद में आपकी रूचि देख मुझे बहुत अच्छा लगा.. आप भी इस पर कलम आजमाएं
शुभकामनाएं
आदरणीय गणेश जी,
प्रभु लो शरण, जीवन -मरण, से हो सहज, उद्धार ..........में गेयता निर्बाध है, अब 'लो' पर जिव्हा का बालाघात बिल्कुल सही लग रहा है.
सादर आभार..
/////क्या इस पंक्ति को // लो प्रभु शरण, जीवन -मरण, से हो सहज, उद्धार // करना सही होगा...?////////
बात कुछ बन रही है , किन्तु अभी भी गेयता जरा सा बाधित है , यदि तनिक हेर फेर कर दिया जाय तो गेयता एक दम से सही हो जायेगी ...
प्रभु लो शरण, जीवन -मरण, से हो सहज, उद्धार
रचना की सराहना के लिए आभार केवल प्रसाद जी
आदरणीय विजय निकोर जी
रचना आपको पसंद आयी और आपका अनुमोदन प्राप्त हुआ इस हेतु हार्दिक आभार
अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार आ० ऊषा तनेजा जी
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