भर्त्सना के भाव भर, कितनी भला कटुता लिखें?
नर पिशाचों के लिए, हो काल वो रचना लिखें।
नारियों का मान मर्दन, कर रहे जो का-पुरुष,
न्याय पृष्ठों पर उन्हें, ज़िंदा नहीं मुर्दा लिखें।
रौंदते मासूमियत, लक़दक़ मुखौटे ओढ़कर,
अक्स हर दीवार पर, कालिख पुता उनका लिखें।
पशु कहें, किन्नर कहें, या दुष्ट दानव घृष्टतम,
फर्क उनको क्या भला, जो नाम, जो ओहदा लिखें।
पापियों के बोझ से, फटती नहीं अब ये धरा
खोद कब्रें, कर दफन, कोरा कफन टुकड़ा लिखें।
हों बहिष्कृत परिजनों से, और धिक्कृत हर गली,
डूब जिसमें खुद मरें वो, शर्म का दरिया लिखें।
कब तलक घिसते रहेंगे, रक्त भरकर लेखनी,
हों न वर्धित वंश, उनके नाश को न्यौता लिखें।
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
आदरणीय कल्पना जी बहुत ही सुन्दर! इसी जोश, इसी आहवाहना की आज नारियों को आवश्यकता है। आपको बहुत साधुवाद!
कल्पना दी, हमने तो आपके शानदार नवगीत पढ़े, बेहतरीन कुंडलियां पढ़ी और अब ये शानदार गज़ल, आपने तो मंत्रमुग्ध कर दिया, सादर
आदरणीय श्याम नारायण जी, बहुत बहुत धन्यवाद....
आदरणीय विजय जी, रचना को मन से सराहने के लिए हृदय से आभार....
BAHOT KHOOB..................
आदरणीया कल्पना जी:
हर शेर बेहद ख़ूबसूरत है ! हर ख्याल लाजवाब है ......!
इस नज़्म की तारीफ़ के लिए उचित अल्फाज़ की कमी महसूस हो रही है !
विजय निकोर
समस्त आदरणीय विद्वानों की चर्चा से मुझे काफी सीख मिल चुकी है, मुझे गजल की बारीकियाँ, परिभाषाएँ और उर्दू के शब्दों का ज्ञान बिलकुल नहीं है। सिर्फ हिन्दी के छंदों के आधार पर उदाहरण देख पढ़कर ही लिखने की कोशिश करती हूँ।दो महीने पहले से यहीं आकर गजल सीखने और लिखने का अभ्यास कर रही हूँ, अब लगता है सही स्थान पर पहुँच गई हूँ। आप सबके सहयोग के लिए हार्दिक आभार, आगे भी मार्गदर्शन मिलता रहे इसी उम्मीद के साथ....कल्पना
फिलहाल आदरणीया कल्पना जी की प्रस्तुति को साफ़-सुथरा रहने दें हम.. . :-)))
सौरभ जी,
शुक्रिया
मेरा भी यही आशय है की ग़ज़ल को ग़ज़ल रहने दिया जाए,,,,
हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़ल विशेषण का प्रयोग उसके पारिभाषिक मानको से इतर करने पर तो स्थिति भयावह हो जायेगी
// हम प्रस्तुति की आत्मा देखें तो उचित होगा. //
सहमत हूँ
सादर
अनावश्यक शाब्दिकता को छोड़ हम प्रस्तुति की आत्मा देखें तो उचित होगा.
शब्द मात्र को नहीं शब्दों के प्रयोग की सार्थकता प्रकृष्टता को देखें
हम अब भी ग़ज़ल को ग़ज़ल ही कहते हैं. लेकिन मेहरबां हम हिन्दी वर्णमाला के आगे नहीं जाना चाहते. जो गिर सकता है उस गिराने का सुख हम लेना चाहेंगे. चाहे नियम जो हो, जैसे हो. शब्द नहीं बिगड़ने चाहिये. बस
शुभेच्छाएँ
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