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जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।

बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।

 

सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,

नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।

 

जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,

तंग चालों बीच जुड़ता, घोंसला उनके लिए।

 

झाड़ते हैं हर गली, हर रास्ते की धूल जो,

धूल ही होती दवा है, या दुआ उनके लिए।

 

गाँव वालों के सभी हक़, ले गए  लोभी शहर,

सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।

 

क्या पढ़ेंगे दीन कविता, गीत या कोई गजल,

भूख के भावों भरा, कोरा सफ़ा उनके लिए।

बेरहम शासन तले जो, घुट रहा है आम जन,

रहनुमाओं ने अभी तक, क्या किया उनके लिए।  

*'शहर' शब्द का वज़न हिन्दी उच्चारण के अनुसार १+२लिया है।

(मौलिक व अप्रकाशित)

  • कल्पना रामानी

 

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Comment by कल्पना रामानी on June 2, 2013 at 3:55pm

आदरणीय अनुराग जी, प्रशंसात्मक शब्दों के लिए हार्दिक धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on June 2, 2013 at 3:54pm

आदरणीय तिलकराज जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार

Comment by Anurag Singh "rishi" on June 1, 2013 at 7:15pm

वाह यथार्थ चित्रित कर के रख दिया आपने नायाब गज़ल है
बधाई स्वीकारें

गाँव वालों के सभी हक़, ले गए  लोभी शहर,

सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।

Comment by Tilak Raj Kapoor on May 5, 2013 at 10:53am

एक और लाजवाब ग़ज़ल। बधाई।

Comment by कल्पना रामानी on May 5, 2013 at 10:11am

प्रियंका जी, रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद...

Comment by Priyanka singh on May 4, 2013 at 7:50pm

गाँव वालों के सभी हक़, ले गए  लोभी शहर,

सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।

बहुत उम्दा बधाई कल्पना जी......

Comment by कल्पना रामानी on May 4, 2013 at 9:17am

अशोक जी हार्दिक धन्यवाद...

सादर

Comment by कल्पना रामानी on May 4, 2013 at 9:16am

आ॰ मनोज जी, रचना की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद...

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 4, 2013 at 7:30am

गाँव वालों के सभी हक़, ले गए  लोभी शहर,

सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।..............वाह! बहुत उम्दा शेर.

आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, बहुत सुन्दर गजल कही है सभी अशआर जानदार गाँव और शहर की विसंगतियों की कहानी. भरपूर दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by कल्पना रामानी on May 3, 2013 at 2:12pm

लेकिन सौरभ जी, मुझसे किस बात की क्षमा? इस तरह से आप मुझे शर्मिंदा न करें। आप सबका स्नेह ही तो मुझे यहाँ बांधकर रखे हुए है। वेब पर डेढ़ वर्ष की अवधि में यह अभिव्यक्ति-अनुभूति के बाद दूसरा समूह है जहाँ ज्ञान और अपनापन मिला है। अधिक समूहों से जुड़ना मेरे स्वभाव में नहीं है क्योंकि इससे सीखने और लिखने का समय बंट जाता है। मैं बड़ी उम्र में साहित्य की   दुनिया से जुड़ी हूँ, अब अधिकाधिक सीखना और लिखना चाहती हूँ,   एक बार आपका पुनः धन्यवाद...सादर

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