जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।
बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।
सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,
नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।
जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,
तंग चालों बीच जुड़ता, घोंसला उनके लिए।
झाड़ते हैं हर गली, हर रास्ते की धूल जो,
धूल ही होती दवा है, या दुआ उनके लिए।
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।
क्या पढ़ेंगे दीन कविता, गीत या कोई गजल,
भूख के भावों भरा, कोरा सफ़ा उनके लिए।
बेरहम शासन तले जो, घुट रहा है आम जन,
रहनुमाओं ने अभी तक, क्या किया उनके लिए।
*'शहर' शब्द का वज़न हिन्दी उच्चारण के अनुसार १+२लिया है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ॰ राजेश कुमारी जी, आपकी सराहना युक्त टिप्पणी से मन बहुत प्रसन्न हुआ, हार्दिक आभार...
वीनस जी, मैं काफिया वाली लिंक अनेक बार पढ़ चुकी हूँ, वहाँ इस तरह के उदाहरण नहीं मिले। अब सौरभ जी की टिप्पणी से शंका का समाधान हो चुका है, यही जानना चाहती थी कि काफिया के शब्द में अंतिम से पहला वर्ण भी समांत होगा या मात्रा के अनुसार 'लघु या गुरु'। इस ज्ञानवर्धक चर्चा से सभी पाठकों को अवश्य लाभ होगा...सादर
//वैसे मेरे ख्याल से यहाँ कल्पना जी की ग़ज़ल पर ही बात तो हो बेहतर रहे//
सही है. यहाँ इस पोस्ट पर इस पोस्ट से संबन्धित बात ही हो.
इसीकारण, आदरणीया कल्पनाजी के माध्यम से आपको यह कहा जबकि आपको ऐसा कहते कई स्थानों पर देख चुका हूँ.
इस विषय पर मैं पूरे संदर्भ में क्या समझता हूँ, यह किसी समय पोस्ट करूँगा. आवश्यक भी है.
ओबीओ के वातावरण का ’स्व’ क्या है यह जानना और समझना एक आवश्यक तथ्य है, जिसका यह संबोधन एक अन्योन्याश्रय भाग है. अन्यान्य संबोधनों से यह बहुत अलग है और मैं उन अन्यान्य संबोधनों के आज भी विरुद्ध हूँ.
(आदरणीया कल्पना जी से क्षमासहित)
सौरभ जी,
एक समय तो आप भी मेरी इस टेक से सहमत थे, वैसे तब इस प्रकार के संबोधन नए नए प्रचलन में आये थे, अब तो परिपाटी बनते जा रहे हैं
वैसे आदरणीय संबोधन उतना असहमति का कारण नहीं है मगर कुछ अन्य विशेषण निवेदन के स्वर के मुखर होने का कारण हैं, उन पर भी आपसे चर्चा हो चुकी है और जहाँ तक मुझे याद पड़ता है आपने भरोसा दिलाया था यह सब जल्द बंद करना पड़ेगा, अन्यथा ये भी परिपाटी बन जायेंगे, परन्तु ऐसा प्रयास अभी तक दिखा नहीं तो मुझे लगा शायद आप इस विशेषण से भी सहमत हो गए हों
वैसे मेरे ख्याल से यहाँ कल्पना जी की ग़ज़ल पर ही बात तो हो बेहतर रहे ...
सादर
आदरणीय कल्पना रमानी जी बहुत सुन्दर सामयिक ग़ज़ल लिखी है हर अशआर स्वयं में एक प्रश्न खड़ा करता है जिसका उत्तर हर संवेदन शील ह्रदय तलाशता है बहुत बढ़िया दिल से बधाई आपको
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।
vaah vaah
कल्पना जी,
कविता, कटुता.... चाँदनी, रागिनी आदि दोष पूर्ण कवाफी हैं
अधिक जानकारी के लिए 'काफ़िया' लेख में विस्तार से लिखा गया है और उतनी विस्तार से लिखना यहाँ संभव नहीं है इसलिए निवेदन है उस लेख को देख लें
उसका लिंक ओबीओ में पेज के सबसे नीचे (फुटर) से भी मिल सकता है
सादर
आ॰ सौरभ जी, इस मंच पर जितनी सहजता से हर समस्या का समाधान हो जाता है, शायद वेब पर अन्य किसी स्थान पर नहीं हो। मेरी शंका का समाधान आपने कर ही दिया, एक गजल इसी कारण अधूरी पड़ी हुई है। किसी भी रचना पर विद्वानों की प्रतिक्रिया बहुत महत्वपूर्ण होती है, आपका हर शब्द ऊर्जा में वृद्धि करता है। आपका हार्दिक धन्यवाद...साभार
बहुत ही व्यवस्थित ग़ज़ल उनके नाम जिनका स्वयं का जीवन अत्यंत अव्यवस्थित हुआ करता है. बहुत सुन्दर ! प्रत्येक शेर हकीकतबयानी करता हुआ अगले शेर को यही दायित्व सौंपता जाता है. इस मुकम्मल और मुसलसल ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ और सादर शुभकामनाएँ.
वीनस भाई और आपके बीच का संवाद मंच के उद्येश्य के अनुरूप है, आदरणीया.
//कविता, कटुता चाँदनी, रागिनी या फिर एक जैसा रखना चाहिए जैसे कविता-सरिता,रागिनी-मालिनी आदि।//
कविता-कटुता नहीं, कविता-सरिता हाँ. चाँदनी-रागिनी नहीं, रागिनी-मालिनी हाँ.. . .:-))
एकबात आपके माध्यम से आदरणीया.. .
शब्दों की दुनिया में किसी परिचयात्मकता को शब्द ही प्रगाढ़ करते हैं, भौतिक स्वरूप नहीं. अतः कुछ टेक एक विन्दु के बाद असहज लगते हैं.
(उपरोक्त पंक्ति और उसका आशय वीनसभाईजी के लिए है जो अन्यों के पोस्ट पर संभव और उचित न लगें)
विजय निकोर जी, हार्दिक धन्यवाद...
सादर...
एक बेहतरीन गज़ल, बहुत ही
ख़ूबसूरत ख्याल ... बधाई।
सादर,
विजय निकोर
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