तुमको जो प्रतिकूल लगे हैं
वे हमको अनुकूल लगे
और तुम्हें अनुकूल लगे जो
वे हमको प्रतिकूल लगे...............
हम यायावर,जान रहे हैं
फूल कहाँ पर काँटे हैं
तुमने संचय किया न जितना
हम तो उतना बाँटे हैं
तुम नत मस्तक जिसके आगे
हमको वे सब धूल लगे.............
तुम ठुकराते,हम अपनाते
फर्क यही हम दोनों में
कंकर पत्थर पर हम सोते
तुम मखमली बिछौनों में
भौतिक सुख हैं नाग विषैले
चन्दन हमें बबूल लगे..................
आये थे क्या लेकर,सोचो
क्या लेकर तुम जाओगे
जो कुछ नामे यहाँ करोगे
जमा वहाँ तुम पाओगे
जीवन की सारी सच्चाई
तुमको सदा फिजूल लगे..................
मेरा-मेरा कह कर तुमने
जग को किया पराया है
कौन हितैषी,कौन मित्र है
तुम्हें समझ ना आया है
तुमने मारे जितने पत्थर
हमको सारे फूल लगे ..............
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट,विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
(स्वरचित व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय भाई अशोक कुमार रक्ताले जी, उज्जैनी की पुण्य धरा से स्नेह-सुमन मिले, बस प्रसाद ही मिल गया." ईश्वर की कोर बैंकिंग" यह प्रयोग मन को मुग्ध कर गया. भाई अशोक जी मूलत: गीतकार ही हूँ.छंदों में लिखना तो ओबीओ में अभी-अभी ही सीखा है. गज़ल लिखनी नहीं आती.धुन के अनुमान से प्रयास कर लेता हूँ.
ओबीओ परिवार से जुड़ने के बाद ही मात्रा गणना, गण वगैरह सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.कार्य-क्षेत्र की व्यस्तता समयाभाव का प्रमुख कारक है. गीत के लिये मन में कोमल भाव जागने चाहिये. लग रहा है कि मन की वह कोमलता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है. आप सभी की स्नेह वर्षा के कारण थोड़ी-बहुत कोमलता अभी बाकी है.
आपको गीत पसंद आया. मन प्रसन्न हो गया. आभार.
आदरेया कुन्ती मुकर्जी जी, आपका स्नेह बना रहे, आभार.
आदरणीय प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी, हम आपको अनुकूल लगे, मन तृप्त हो गया. आपके प्रेम ने हमें सदैव ही प्रोत्साहित किया है.आपकी उपस्थिति नवीन उर्जा का संचार करती है.सादर.
आदरेया कल्पना रामानी जी, आपके प्रोत्साहन हेतु आभार.
अय हय अय हय अय, आदरणीय सौरभ पाण्डेय भाई जी, आपकी पारखी दृष्टि और आपके विचार मेरे लिये किसी "कसौटी" से कम नहीं हैं. इनका अनुमोदन मिल जाने से लगता है कि 24 कैरेट का प्रमाण-पत्र मिल गया है. सृजन एवम् मंथन के दौरान उत्पन्न तपन स्पर्श-मात्र से शीतल हो जाती है.आपकी प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद लगता है, अरे ! यह तो अच्छा लिख गया है.
"नामे" शब्द का प्रयोग मेरे एक पुराने गीत में भी हुआ है. मेरे ब्लॉग में प्रकाशित होने के कारण इसे ओबीओ में प्रस्तुत नहीं कर पाऊंगा किंतु प्रासंगिक होने के कारण दो-चार पंक्तियों का उल्लेख करना चाहूंगा :-
दोहरी प्रविष्टि के लेखे को, क्यों यार ! समझ न पाता है..
सादर.
आदरणीय विजय निकोरे जी, हृदय से धन्यवाद.
आदरणीय मनोज शुक्ल जी, आपका प्रोत्साह्न सदा मिल्ता रहे, बहुत-बहुत आभार.
आदरेया गीतिका "वेदिका" जी, आपकी स्नेह सिक्त प्रतिक्रिया हेतु आभार........
वाह आदरणीय गुरुदेव श्री वाह आनंद आ गया, आपने अपने नैतिक जीवन के कार्यों का बहुत ही सुन्दरता से वर्णन किया है. हर पंक्ति कुछ न कुछ सन्देश दे रही हैं. इस शानदार रचना पर मेरी ओर से भूरि भूरि बधाई स्वीकारें.
प्रिय श्री केवल प्रसाद जी, आपकी बधाइयों के लिये हृदय से धन्यवाद.
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