ज़िन्दगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए ,
आदमी मजबूर है खुद को बदलने के लिए ।
सिर्फ कहने के लिए अँगरेज़ भारत से गए ,
अब भी है अंग्रेजियत हमको मसलने के लिए ।
हाथ में आका के देकर नोट की सौ गड्डियां ,
आ गये संसद में कुछ बन्दर उछलने के लिए ।
गुम गयीं बापू तेरी मूल्यों की सारी टोपियाँ,
और लाठी रह गयी सच को कुचलने के लिए ।
नित गिरावट के बनाए जा रहे हैं कीर्तिमान
सभ्यता की छातियों पर मूंग दलने के लिए ।
घर बुजुर्गों के बिना कितने वियाबां हो गए ,
अब नसीहत किस से पाएं हम संभलने के लिए ।
रात भर में फ़िक्र को उनकी न जाने क्या हुआ ,
सुब्ह हमसे आ मिले पाला बदलने के लिए ।
मुंगे मोती से भरे सागर में ऐसा क्या हुआ ?
मछलियाँ तय्यार हैं जारों में पलने के लिए ।
आने वाली पीढ़ियों के नाम पौधे रोप दें ,
शुद्ध शीतल वायु तो हो साँस चलने के लिए ।
Comment
बहुत उम्दा .. हार्दिक शुभकामनायें
.
आदरणीया डॉ नूतन साहिबा और श्री केतन जी हार्दिक आभार आपका !
UMDA KALAM ABHINAV JI BHOT HI SUNDAR KATAKSH KIYA HAI AAPNE
सिर्फ कहने के लिए अँगरेज़ भारत से गए ,
अब भी है अंग्रेजियत हमको मसलने के लिए ।
MUKAMAL SHE'R HAI
बहुत सुन्दर गज़ल है अभिनव जी... बधाई
आने वाली पीढ़ियों के नाम पौधे रोप दें ,
शुद्ध शीतल वायु तो हो साँस चलने के लिए ।..........एक सुबर सन्देश के साथ
बहुत शुक्रिया श्री अमन जी !
आपकी तारीफ से अभिभूत हूँ आदरणीया विजयश्री जी बहुत आभार !
आदरणीया मंजरी जी बहुत धन्यवाद हौसला बढ़ाने के लिए !
क्या कहने श्री अवनीश जी बहुत शुक्रिया !
बहुत आभार आदरणीय श्री विजय साहिब ग़ज़ल पसंद आई लिखना सार्थक हुआ स्नेह बना रहे यही कामना है ..
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