14 पंक्तियां
पहली, तीसरी व दूसरी, चौथी तुकान्त का क्रम
तेरहवी व चौदहवीं पंक्ति तुकान्त
साढ़े तीन का पद
जब जब सूरज की किरनें पूरब में चमकी
जगत में छाया गहन तिमिर तब तब छंटता
लेकिन अंधियारा शेष रहा तो है बहकी
मन की पांखों के नीचे। पक्षी है फिरता
ढूंढे ठूंठों में बचे हुए जीवन के कण
पर न पत्ता है न फूल बचा बस वीराना
अब पायें कैसे सपन सरीखे सुख के क्षण।
बढ़ते बढ़ते यह प्यास बनी है इक झरना
तृप्ति की कोई आस नहीं, धूप है गहरी
एक मरीचिका सी चमकें ओस की बूंदें
इन किरनों में। तभी कौंध सी बिखरी
कि तुम आयी सहज समेटे तृप्ति की बूंदें
जैसे बहती अविरल धारा कल कल करती
इस थके पथिक में भी एक आस सी भरती।
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!
भाई बृजेश जी, ऐसा रोचक रचना-शिल्प, उसकी विधा और इतना समृद्ध संवाद ! वाह ! हम वाकई बहूऽऽऽऽत विलम्ब से आये इस पन्ने पर.
सोनेट पर जो कुछ संवाद बना है वह इस विधा के चरण के चिह्न को स्थापित करने के लिए काफी है.
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ.
आदरणीया इस उदाहरण को देने का आशय मात्र आपकी साढ़े तीन पद की चिंता को लेकर था। जब हम इस विधा की बात करते हैं तो चाहे शेक्सपियर हो या मिल्टन की सब बात होगी न। उससे कैसे हम बच सकते हैं। जब हम नई धारा की कविता की बात करते हैं तो त्रिलोचन, मुक्तिबोध, श्मशेर सहित सभी की बात करते हैं और उन्होंने जो प्रयोग किए हैं उन्हें देखते हैं न। फिर मेरा उदाहरण देना भी समीचीन हुआ न!
दरअसल आपने अब तक की चिन्ता का उत्तर स्वयं दे दिया जब आपने जिक्र किया कि हाप्किन्स ने साढ़े 10 पंक्तियों का लिखा। यानी साढ़े चक्कर चर्चा से खत्म हुआ।
रही बात इस विधा को हिन्दी में ढालने की तो इस संबंध में मैं निवेदन कर चुका हूं कि त्रिलोचन जी इस विधा को हिन्दी में रूप प्रदान कर चुके हैं। यह शोचनीय नहीं रहा। यह विधा हिन्दी में किसी अन्य भाषायी साहित्य को उदाहरण माने बिना आगे जा सकती है। हम पर सिर्फ उसे आगे ले जाने की जिम्मेदारी है।
वैसे जहां तक हमारा प्रश्न है तो अभी हम सीखने के स्तर पर हैं। सीखना, पारंगत होना फिर प्रयोग करना। यही सिद्धान्त है।
आदरणीया वंदना जी संभवतः यहां एक समस्या आपको मेरे ‘साढ़े तीन का पद’ के प्रयोग में है। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि यहां ‘पद’ शब्द का प्रयोग मैंने अपनी तरफ से नहीं किया बल्कि इसे कहीं देखा था इसलिए इसको यहां प्रयुक्त किया गया। ‘छंद’ में एक इकाई ‘पद’ है उससे छोटी ‘चरण’ है। ‘छंद’ को पदों में और ‘पद’ को चरणों में विभक्त किया जाता है।
यहां 14 पंक्तियों को ‘तीन बंद’, ‘चार पद’ में मैंने विभक्त किया है। मैंने अपनी बात साढ़े तीन पंक्तियों में समाप्त की है इसलिए इसे ‘पद’ नाम दिया है। हो सकता है कि यह नाम उपयुक्त न हो लेकिन अभी तक के अध्ययन और कोई अन्य उपयुक्त शब्द न सूझने के कारण मैंने ‘पद’ शब्द का प्रयोग यहां किया है। यदि कोई अन्य उपयुक्त शब्द हो तो अवश्य सुझाइए।
रही इस स्वरूप की बात तो यह स्वरूप भी अंग्रेजी में काफी प्रचलित रहा है। एक उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं।
A variant on the English form is the Spenserian sonnet, named after Edmund Spenser (c.1552–1599), in which the rhyme scheme is abab, bcbc, cdcd, ee. A Spenserian sonnet does not appear to require that the initial octave set up a problem that the closing sestet answers, as with a Petrarchan sonnet. Instead, the form is treated as three quatrains connected by the interlocking rhyme scheme and closed by a couplet. The linked rhymes of his quatrains suggest the linked rhymes of such Italian forms as terza rima. This example is taken from Amoretti:
Happy ye leaves! whenas those lily hands
Happy ye leaves. whenas those lily hands, (a)
Which hold my life in their dead doing might, (b)
Shall handle you, and hold in love's soft bands, (a)
Like captives trembling at the victor's sight. (b)
And happy lines on which, with starry light, (b)
Those lamping eyes will deign sometimes to look,(c)
And read the sorrows of my dying sprite, (b)
Written with tears in heart's close bleeding book. (c)
And happy rhymes! bathed in the sacred brook (c)
Of Helicon, whence she derived is, (d)
When ye behold that angel's blessed look, (c)
My soul's long lacked food, my heaven's bliss. (d)
Leaves, lines, and rhymes seek her to please alone, (e)
Whom if ye please, I care for other none. (e)
आप क्या कहना चाह रही हैं यह स्पष्ट नहीं हुआ मुझे। जहां तक समझ सका उसके आधार पर उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूं। पूर्ण विराम के साथ बात तो समाप्त हो गयी लेकिन पद्य की पंक्ति अभी चल रही है।
यह पद्य नहीं लगता क्या आपको?
गद्य काव्य एक अलग विधा है आदरणीया। यह रचना साॅनेट है। मैंने आपको एक उदाहरण के रूप में यह रचना प्रस्तुत की है। जिससे इस विधा में उनके प्रयोग की विविधता को आप समझ सकें।
आदरणीया वंदना जी आपका कहना उचित है। हिन्दी में इस विधा में रचनायें बहुत अधिक पढ़ने को नहीं मिलती। इसका कारण शायद यह रहा कि इस विधा पर बहुत अधिक प्रयास नहीं किया गया। यह सही है कि अंग्रेजी से ही यह हिन्दी में आया। त्रिलोचन जी की शुरूआती रचनायें अंग्रेजी स्वरूप से ही प्रभावित रहीं लेकिन बाद में उन्होंने इस पर बहुत प्रयोग किए जिनमें पदों के निर्धारण को लेकर भी हैं। सीधे कहें तो उन्होंने इस विधा में वाक्यों में बात कही और जहां भी वाक्य उनका खतम हो गया, वहां उन्होंने पूर्ण विराम लगा दिया। यह अनूठा प्रयोग था। परन्तु इन प्रयोगों ने रचना की गेयता कहीं प्रभावित नहीं हुई। गेयता सदैव उच्च कोटि की ही रही। इस संदर्भ में उनकी एक और रचना को देखना रूचिकर होगा।
आरर-डाल
सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आयी,
झूठ क्या कहूं। पूरे दिन मशीन पर खटना,
बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई
का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना।
इस उस पर मन दौड़ाना। फिर उठ कर रोटी
करना। कभी नमक से कभी साग से खाना।
आरर डाल नौकरी है। यह बिलकुल खोटी
है। इसका कुछ ठीक नहीं है आना जाना।
आये दिन की बात है। वहां टोटा टोटा
छोड़ और क्या था। किस दिन क्या बेचा-कीना।
कभी अपार कमी का ही था अपना कोटा,
नित्य कुआं खोदना तब कहीं पानी पीना।
धीरज धरो, आज कल करते तब आऊंगा,
जब देखूंगा अपने पुर कुछ कर पाऊंगा।
आदरणीया वंदना जी
यहां मैंने त्रिलोचन जी की दो रचनायें प्रस्तुत की हैं।
जो विधा अंग्रेजी साहित्य से हिन्दी साहित्य में आयी है उनका विश्लेषण करते समय आप पर अंग्रेजी साहित्य क्यों हावी हो जाता है? आदरणीया जो दूसरी रचना मैंने प्रस्तुत की है उसे भी देखने का कष्ट करें।
//'डेढ' और 'साढे तीन' का पद बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं रहा,//
ऐसा नहीं है। हिन्दी साहित्य में विशेषकर त्रिलोचन जी की रचनाओं में खूब जमकर ये प्रयोग किए गए हैं।
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