14 पंक्तियां, 24 मात्रायें
तीन बंद (Stanza)
पहले व दूसरे बंद में 4 पंक्तियां
पहली और चौथी पंक्ति तुकान्त
दूसरी व तीसरी पंक्ति तुकान्त
तीसरे बंद में 6 पंक्तियां
पहली और चौथी तुकान्त
दूसरी व तीसरी तुकान्त
पांचवीं व छठी समान्त
सब तो है वैसा ही, आखिर क्या है बदला
उठते बादल स्याह गगन में हैं बगुले से
छाए मन पर भाव कुम्हलाए छितरे से
दुख का सागर लहराता न तनिक भी छिछला
चिड़िया चहकीं पर गौरैया बहकी बहकी
इस डाली से बस उस डाली फिरती रहती
खिलीं हैं कलियां भी और कोंपल मुस्काती
फिर भी न हरियाई, बगिया अब भी न महकी
हर तरफ हैं किरनें चमकी और छितरी सी
न जाने क्यूं फिर भी ये अंधियारा चुभता
कोई शीशा टूट गया रह रहकर चुभता
इधर समेटूं पाखें लहुलुहान बिखरी सी
बस प्रतीक्षा शेष रही, काश! तुम आ जाओ
यहां क्षितिज पर स्वर्णिम आभा सी छा जाओ
- बृजेश नीरज
Comment
परम् आदरणीय सौरभ पाण्डेय महोदय एवं आदरेया गीतिका जी आपनें इस विधा में रुचि दिखाई यह देखकर बड़ा अच्छा लगा।
मेरा हृदय में एक कसक सी है कि हिन्दी में यह विधा को आसानी से गति क्यों नहीं मिल पा रही है,जबकि अन्य भाषाओं में विश्वप्रसिद्ध हो चुकी है और हो भी रही है।
मुझे आपलोगों की विशेष प्रतीक्षा थी,जिससे इस चर्चा को एक ठोस रूप मिल सके और आपसी सहयोग से इस विधा पर एक सुगम सिद्धान्त निकाला जाय।
आदरणीय मैं आभार का पात्र कैसे?मैं तो चाह कर भी त्रिलोचन जी के पद चिन्हों का अनुकरण कर सानेट को आगे नहीं बढ़ा पा रही हूं। सार्थक कदम तो आपका है,आप बधाई के पात्र हैं।
सादर
आदरणीय गीतिका जी आपका आभार!
इस विधा में आप उल्लिखित नियमों के तहत प्रयास कर सकती हैं। इस विधा में दो रचनायें मैंने लिखने का प्रयास किया था। दोनों ही ओबीओ पर पोस्ट हैं। उन रचनाओं पर हुई चर्चा से इस विधा के विषय में बहुत कुछ ज्ञात हो सकता है।
बहुत सुंदर प्रस्तुति सोनेट की ...आदरनीय बृजेश जी!
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! ये नई विधा पर मेरा प्रयास था इसलिए आपसे मार्गदर्शन बहुत आवश्यक था मेरे लिए, परन्तु आपकी व्यस्तता आड़े आ रही थी। यह इस विधा पर मेरा दूसरा प्रयास था और एक मायने में पहला भी क्योंकि मैंने दो रचनायें इस विधा पर लिखने का प्रयास किया था लेकिन दोनों शिल्प में भिन्न थी। गेयता के क्षेत्र में दोनों में ही कमी रह गयी होगी। आगे की रचनाओं में इस कमी को दूर कर सकूं ऐसा मेरा प्रयास रहेगा।
मैंने इस विधा के विषय में त्रिलोचन जी की रचनाओं का अध्ययन करते वक्त ही जाना। आगे इस विधा के विषय में मेरी समझ को विकसित करने में वाकई वंदना जी का बहुत योगदान रहा। अब भी हमारी चर्चा और अध्ययन इस विधा को लेकर गतिमान है। उनके इस योगदान का मैं भी ऋणी हूं।
सादर!
भाई बृजेशजी, मैं मुग्ध हूँ इस प्रस्तुति पर !
आपकी प्रस्तुति का कथ्य इतना प्राकृतिक और आत्मीय है कि मन झूम उठा. वैसे प्रवहमान पंक्तियों की कसौटियों पर आपकी एक-दो पंक्तियाँ प्रयास मांग रही हैं. परन्तु, जिस रोमांस की चाहना पंक्तियाँ रखती हैं, आपने उन्हें उससे खूब संतुष्ट किया है. इस हेतु बहुत-बहुत बधाई.
सोनेट को हमने अंग्रेज़ी में शेकेसपीयर के माध्यम से ही देखा पढ़ा है. हिन्दी में यह विधा नई कविता के साथ आयी जरूर किन्तु नई कविता की आँधी में बह गयी. अब नई कविता स्वयं विलुप्तप्राय है. ठीक इसी के बाद गद्य कविताएँ दीखने लगी थीं. सो सारा कुछ एक साथ हुआ और साथ ही तिरोहित भी.
इसमें कोई शक नहीं कि शहरी (अर्बन) भद्रता (अरबेन) आधुनिक भाव (मोडर्निटी) के भार का वहन अपनी प्रकृति के कारण सोनेट खूब कर सकते हैं, आवश्यकता है इनको व्यवस्थित कर हिन्दी में प्रासंगिक करने की और तदनुरूप प्रचलित करने की.
बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ
आदरणीया वन्दना तिवारी जी के प्रति आभार कि आपने आपके साथ इस विधा पर रोचक चर्चा कर पाठकों से सम्मति लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायीं.
मैं स्वयं के लिए पुनः कहूँगा... वाकई मैं इस पन्ने को भी देर से देखा.
ओह !
आदरणीय रक्ताले जी आपका आभार!
भावपूर्ण सुन्दर रचना सॉनेट/तुम आ जाओ. वर्णित विधान का पालन करती हुई. सादर बधाई स्वीकारें.
आदरणीय केवल भाई आपका आभार!
आ0 बृजेश भाई जी, बहुत सुन्दर रचना।.. बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीया मैं निवेदन करना चाहता हूं कि हिन्दी में यह विधा स्थापित हो चुकी है लेकिन संभवतः इसके स्वरूप, शिल्प और गेयता में विविधता और जटिलता के कारण इस पर लोग प्रयास करते नहीं दिखते क्योंकि इसका कोई सीधा फार्मूला नहीं।
बुराई किसी तरह के प्रयोेग में नहीं है। बस गेयता बनी रहनी चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात कि इस सुंदर विधा पर आगे और कार्य हो।
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