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ग़ज़ल/ चुभती रही

आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।

2122, 2122, 2122, 212 

चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही

याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही

 

सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते हुए

भावना तो संग मेरे मौन बस तकती रही

 

ये सुबह भी रात का आभास देती है मुझे

इन उजालों में अंधेरे की लहर दिखती रही

 

दर-ब-दर हो हम तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए

प्रेम की इक ओढ़ चादर वासना फिरती रही

 

आंख ने तो अब सपन ही  देखना चाहा नहीं

नींद ये फिर भी मुझे बदनाम ही करती रही

 

खोजता मैं फिर रहा हूं मस्तियां वो गांव की

भीड़ अब इस शहर की हर पल मुझे छलती रही

छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा

देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही

                     - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Naveen Mani Tripathi on November 8, 2016 at 10:24am
ईता दोष में जली ईता दोष और ख़फ़ी ईता दोष पढ़ा है सम्भवतः यह जली ईता दोष आता है । फिर भी ग़ज़ल बेमिशाल लगी ।
Comment by बृजेश नीरज on June 9, 2013 at 3:16pm

आदरणीय आबिद जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 9, 2013 at 3:15pm

आदरणीया सीमा अग्रवाल जी आपका हार्दिक आभार! आपने जिन चीजों को इंगित किया है उन्हें भविष्य में सुधारने का प्रयास करूंगा। यह भी ध्यान रखूंगा कि आगे संशोधनों को नीचे अलग से पोस्ट करूं जिससे चर्चा की सार्थकता बनी रहे। वैसे कोशिश यह रहेगी कि कमी न होने पाए जिससे कि संशोधन के लिए बार बार एडमिन साहब को तंग न करूं।
सादर!

Comment by Abid ali mansoori on June 9, 2013 at 1:11pm
आदरणीय बृजेश नीरज जी ग़ज़ल का हर एक शब्द काबिले तारीफ है!
Comment by seema agrawal on June 9, 2013 at 12:45pm

इससे पहले जो ग़ज़ल पोस्ट की गयी थी और जिसके आधार पर ये विस्तृत चर्चा हुयी उस ग़ज़ल को आपको हटाना नहीं चाहिए था बल्कि उसे और संशोधित दोनो गज़लों को यहाँ होना चाहिए जिससे संशोधन को तुलनात्मक रूप में पढ़ा और समझा सके l तभी इस ग़ज़ल पर की गयी इस लम्बी चर्चा का लाभ उठा जा सकता है l

अब बात करती हूँ आपकी ग़ज़ल की कहन की ... बेहद कोमल और संवेदनशील बयानी सभी अश'आर पूर्णतयः परिपक्व सोच की उपज बृजेश जी हर शेर के लिए एक एक बधाई कबूल करिए 

शिल्प गत कमी तो मुझे अब दिखाई नहीं देती बस घुलती,चुभती के साथ खुलती  जैसे काफिये होने चाहिए थे शायद ...हिंदी काव्य में तो इसे स्वीकार किया जाता पर शायद ग़ज़लों में नहीं ...शुभकामनाएं 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 8, 2013 at 9:50am
"सादर आभार आदरणीय...ब्रजेश जी "
Comment by बृजेश नीरज on June 8, 2013 at 9:42am

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 8, 2013 at 9:36am
आदरणीय..ब्रजेश जी, बहुत उम्दा गजल प्रस्तुत की आपने "ये सुबह भी रात का आभास देती है मुझे, इन उजालों में अंधेरों की लहर दिखती रही "...तहे दिल से "शुभकामनाऐं स्वीकार करें "
Comment by वीनस केसरी on June 8, 2013 at 9:06am

बृजेश भाई,
धन्यवाद आपका, कि एक जरूरी काम जो छूट रहा था इसी बहाने फिर से शुरू हो सका ....
सादर

Comment by बृजेश नीरज on June 8, 2013 at 9:01am

वीनस भाई आपका हार्दिक आभार! इस बात के लिए विशेष तौर पर कि आपने इतनी त्वरित गति से लेख उपलब्ध कराया। यह लेख निश्चित रूप से हमारे लिए बहुत उपयोगी होगा।
सादर!

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