आज
बहुत दिनों बाद आया गांव
अपना गांव
जहां हुआ करते थे
महुआ, कटहल, आम
एक बाग भी।
खेलते थे गुल्ली डंडा
कभी कभी क्रिकेट भी।
अब वहां बाग नहीं है
उग आए हैं मकान।
एक नदी बहती थी
शांत, निर्मल।
ऊंचे कगारों पर
ढेर सारे जामुन के पेड़।
कगारों से फिसलते
हम पहुंच जाते किनारे
नदी में नहाते।
अब नदी सूख गयी
सिर्फ शेष रेत।
हथपुइया रोटी बनाती थीं
बड़ी अम्मा
नून, तेल चुपड़कर।
वह सोंधा स्वाद
अब भी है मुंह में।
लेकिन अब अम्मा नहीं।
अब कुछ भी नहीं
आम, जामुन, कटहल
अम्मा, बाग
कुछ नहीं।
सिर्फ हैं
ईंटों के मकान
सरपत और बबूल
ढेर सारे।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सुरेन्द्र भाई आपका हार्दिक आभार!
सच में नीरज भाई बहुत कुछ बदल चुका है आभार आप का ग्राम्य दर्शन कराने मीठी मीठी यादें जौ बेर्रा हथपोयी रोटियों साग।।।। वो भी माँ के प्यारे हाथ से ..जय श्री राधे
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सुमित जी आपका आभार!
sunder rachna
आदरणीय जवाहर जी सच कह रहे हैं आप!
यही तो वेदना है ! न अब वे गांव रहे न ही वे पीपल, कटहल, जामुन के पेड़!
ham गुल्ली डंडा खेलने ja rahe hai ///ek notice chaspa kar denge///beware of गुल्ली डंडा //ha haha ha ha
आदरणीय राम भाई आपका आभार! गुल्ली डंडा खेलने का तो मेरा भी मन कर रहा है लेकिन खेलने की जगह नहीं बची। यहां ओबीओ पर खेलेंगे और किसी को गुल्ली लग गयी तो? :))))))))))))))))
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