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ग़ज़ल - मेरे मन को भाता बस्तर !

ग़ज़ल - 

नहीं युधिष्ठिर एक यहाँ पर । 
यक्ष छिपे हर तरफ बहत्तर ।

क्यों बैठा सीढी पर थककर ,
चल कबीर चौरा के मठ पर ।

साखी शबद सवैया गा तू ,
लोभ छोड़ अब चल दे मगहर ।

रिश्ते सारे स्वार्थ के धागे ,
झूठे हैं नातों के लश्कर ।

तुम गुडगावां के गुण गाओ ,
मेरे मन को भाता बस्तर ।

सेवक कोई रहा नहीं अब ,
सबके भीतर बैठा अफसर ।

ज्ञान की पगड़ी सर पर भारी ,
मगर ज़ुबाने जैसे नश्तर ।

            - अभिनव अरुण 

               [01022013]

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on May 27, 2013 at 6:55pm

श्री ब्रिजेश जी तीर निशाने पे लगना चाहिए प्रयास तो हर रचनाकार का यही होता है सफलता का आकलन तो पाठक के हाथ है ,साधुवाद रचना के अनुमोदनार्थ !!

Comment by Abhinav Arun on May 27, 2013 at 6:54pm

शुक्रिया जनाब नीरज जी !! खूबसूरती आपको पसंद आई आभार !!

Comment by Neeraj Nishchal on May 27, 2013 at 1:43pm

बहुत ही खूब सूरत जनाब 

Comment by बृजेश नीरज on May 27, 2013 at 11:26am

अहहा! क्या बात है? अभी आपका पहला तीर लगा था। अब यह दूसरा तीर। क्या घायल कर देंगे पूरा?
इस बेहतरीन रचना पर मेरी ढेरों बधाइयां!

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