हवा
एक वासंती सुबह
‘’ मैं कितनी खुशनसीब हूँ ,
मेरे सर पर है आसमान
पैरों तले ज़मीन .
मेरी सांसों के आरोह – अवरोह में ,
मेरे रंध्रों में ,
शुद्ध हवा का है प्रवाह .’’
‘’ मैं कितनी खुशनसीब हूँ .’’
कुंजों में एक सरसराहट सी हुई ,
मालती की कोमल पल्लवों पर ,
ठहरी हुई थी हवा ,
मेरे विचारों को भाँप कर ,
मेरे गालों को थपथपा कर
उसने हौले से कहा –
‘’ खुश और नसीब ,
दो अलग अलग है बात .
मुझसे पूछो –
मैं कहाँ कहाँ से ,
होकर हूँ गुज़रती ,
कभी पोखरों से ‘
कभी पिंजरों से ,
कभी चहारदीवारी में झांक कर ,
तंग गलियों में कभी फंसकर,
मैंने देखा है –
खुशी को खजूर में अटका हुआ ,
और –
नसीब रेत में है दफ़न .’’
क्या बताऊँ -
कहाँ से गुज़र कर ,
मैं मालती की वल्लियों में ,
एक ठाँव हूँ पाती ,
पर कितनी देर . . . . . .?
मुझे मजबूरन बहना होता है ,
मैं राजमार्ग पर हूँ जब चलती ,
कितने दृश्यों से रूबरू होते ,
देखती हूँ कभी ,
श्वेत कपासों की ढेर में ,
एक अस्थिपंजर को ,
जैसे –
रूई नहीं वह अपना सिर धुनता है ‘’
फिर दृश्य बदलता है ,
धनिकों के उद्द्यान में ,
मेरा सुस्त बदन चलता नहीं ,
मचल कर लहराते हुए ,
कभी छ्द्म वेश में ,
सुंदरियों के केश में
कभी अनंग बन ,
हर रूप में ,
हर किसी का मनुहार करना पड़ता है .’’
इतना ही नहीं
मैं मानव की कैद में हूँ
पंखों के चक्रव्यूह में
लगातार चक्कर काट रही हूँ .
और तो और
ए. सी. की घुटन में भी
अपने मुर्दे शरीर की ठंडक से ,
अविरल शीतलता देती हूँ ‘’
हे भद्र नारी !
सारी दुनिया तुम्हें
कहती है – ‘ अबला ‘
पर तनिक विचार करो
क्या तुम ‘अबला’ हो ?
पहचानो अपनी आदिशक्ति -
तुम प्रतिकार कर सकती हो,
तुम्हारे पास एक ठोस काया तो है .
तुम सच में खुशनसीब हो .
तुम्हारे आंचल में
अमृत प्रवाहित होता है .
तुम्हारी कुक्षी में ही सृष्टि
निरंतर रचती बिगड़ती है .
तुम ही ब्रह्माण्ड हो !
स्वर्ग की सारी राहें
तुमसे होकर गुज़रती हैं .
हे ममतामयी नारी !
तुम अबला पर अवश नहीं ,
मैं शक्तिशाली ,
पर कितना विवश हूँ .
तुम्हारा एक घर है , एक आंगन ,
पूछ्ने पर एक पता भी है .
मुझसे पूछो , मेरा पता ?
सब के मन में, सब के तन में हूँ
मगर -
मेरा अस्तित्व कहाँ ?
इसीलिये हे सन्नारी !
जब तक तेरी धमनी में ,
अग्नि की धधक है बाकी ,
अपने को संजो लो ,
सँवार लो , बचा लो ‘.
मालती की कुंजों से ,
लहराकर
हवा मेरे गालों को पुनः
थपथपा कर चल दी .
मैं उसे देखती रही ,
तंग गलियों को छोड़ ,
राजमार्ग से गुज़रते हुए
एक नयी मंज़िल की ओर........’
( मौलिक एवं अप्रकाशित रचना )
Comment
सर्वथा एक नवीन प्रस्तुति! बहुत सुन्दर और मनोहारी! आपकी सृजनशीलता को नमन !
आपको बधाई, आदरणीया कुंती जी।
सादर,
विजय निकोर
हवा मेरे गालों को पुनः
थपथपा कर चल दी .
मैं उसे देखती रही ,
तंग गलियों को छोड़ ,
राजमार्ग से गुज़रते हुए
एक नयी मंज़िल की ओर. achi rachna hai
खुश और नसीब ,
दो अलग अलग है बात ..........हम्म
मैंने देखा है –
खुशी को खजूर में अटका हुआ ,
और –
नसीब रेत में है दफ़न .’’.....................वाह !
मैं शक्तिशाली ,
पर कितना विवश हूँ .
तुम्हारा एक घर है , एक आंगन ,
पूछ्ने पर एक पता भी है .
मुझसे पूछो , मेरा पता ?
सब के मन में, सब के तन में हूँ
मगर -
मेरा अस्तित्व कहाँ ?..................बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
हवा से इतनी गहरी बातचीत..आपकी संवेदनशीलता के पंखों की उड़ान पर मुग्ध हूँ.
हार्दिक बधाई.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति हुई है आदरणीया ///हार्दिक बधाई
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