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सूखा !

मही मधुरी कब से तरस रही ,
बुझी न कभी एक बूँद से तृषा ,
घनघोर घटाएँ लरज लरज कर ,
आयी और बीत चली प्रातृषा .

ईख की जड़ में दादुर बैठे ,
आरोह अवरोह में साँस चले ,
पानी की अहक लिये जलचर ,
ताल हैं शुष्क सबके प्राण जले .

पथिक राह चले बहे स्वेदकण ,
पथतरू* से प्यास बुझाए मजबूरन , * traveller’s tree
दूर कोई आवाज़ बुलाए कल् कल् ,
नदी का पानी जैसे कलल कल्.

दौड़े आगे पीछे मृगमरीचिका ,
दिशाभ्रमित करे औ’ पवन चले ,
पशु पक्षी हैं जंगल से भागे ,
पेड़ पौधे मुरझाए खड़े खड़े .

गाँव की ललनाएँ हरपरौरी * गावें ,
बरसा दो इंद्र देवता , बरसा दो !
खेत सूखा , कुआँ , ताल तलैया ,
बरसा दो मेघा ! बरसा दो ! !

.

.

*हरपरौरी (पानी बरसाने के लिये भोजपुरी लोकगीत) - जब मॉरिशस एक पराधीन देश था , तरक्की की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया . जब देश में सूखा पड़ता तब ईख कोठी के मालिक (जो गोरे हुआ करते थे , अंगरेज़ नहीं बल्कि फ्रेंच और हब्शी के संयोग से उत्पन्न वर्णसंकर जिसका बहुत ही रौब हुआ करता था ) गाँव की सयानी औरतों से इंद्र देव की पूजा करवाते . यह बड़ी अजीब प्रथा थी . जिस रात हरपरौरी के गीत गाने की मुनादी होती उस रात किसी भी मर्द को घर से बाहर आने की अनुमति नहीं थी. जब आधी रात बीत जाती तब सयानी औरतें अपने अपने घर से निर्वस्त्र हो कर निकलती , गाँव के चौराहे पर इंद्र देव की पूजा करती और इसी प्रकार गाँव गाँव घूम कर हरपरौरी गाती हुई जाती . इस दौरान जिन जिन गाँवों से ये महिलाएं गुज़रती वहाँ की औरतें उन पर पानी फेंकती . यह प्रक्रिया सुबह के चार बजे तक चलता . ......और सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि दो दिन के अंतराल ही में मूसलाधार बरसात होने लगती.
( डायरी के पन्नों से – अप्रकाशित यह कथा मैं अपनी स्वर्गीया सुंदरी बूआ से अक्सर सुनती थी )

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Comment by Yogendra Singh on June 3, 2013 at 10:27pm

बहुत बहुत बधाई हो ॥ 

Comment by vijay nikore on May 30, 2013 at 6:01am

आदरणीया कुंती जी:

 

आपकी यह अच्छी रचना न जाने कैसे पढ़ने से रह गई।

 

आपने कितना सच कहा है,"..आने वाली पीढ़ी को कुछ पता ही न चलेगा

..कि आज जो  सुख वे भोग रहे हैं उसकी नींव  तले कितने दर्द दफ़न हैं.."

 

नई पीढ़ी के लिए सभी पुरानी प्रथाओं का महत्व कम होता जा रहा है,

और इसका एक मुख्य कारण है नई पीढ़ी पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव,

और दूसरा कारण है हमारा उनके साथ काफ़ी समय न बिताना।

 

यथार्थपरक सुन्दर रचना हेतु आपको बधाई।

 

सादर और सस्नेह,

विजय

 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 28, 2013 at 9:25am

आखों के सामने सूखे का दृश्य उत्पन्न है, रचना अपने उद्देश्य में सफल है, बधाई आदरणीया कुंती जी । 

Comment by Abhinav Arun on May 14, 2013 at 2:28pm

इस रचना के ज़रिये आदरणीया आपने एक अलग साहित्यिक संसार की सैर करा दी बहुत भावपूर्ण और मधुर कृति के लिए हार्दिक बधाई !!

Comment by coontee mukerji on May 14, 2013 at 11:38am

आधुनिक समाज के बदलते परिवेश में यह कुप्रथा कब का समाप्त हो चुका है .......अब यह बात सिर्फ़ कहानी में रह गयी है  अगर इस  प्रथा को अंकित न किया जाय तो आने वाली पीढ़ी को कुछ पता ही न चलेगा .......कि.....आज जो  सुख वे भोग रहे हैं उसकी नींव  तले कितने दर्द दफ़न हैं.......आप सब को  मेरा आभार , भाई नीरज प्रकाशन देने हेतु मैं अवश्य पद की अंतिम रचना पर विशेष ध्यान दूँगी .....वास्तव में जब तक हमें कोई मार्गदर्शन नहीं होता त्रुटि कहाँ पर है समझ में नहीं आता. बहुत बहुत धन्यवाद . सादर / कुंती .

Comment by ram shiromani pathak on May 13, 2013 at 9:01pm

बहुत सुन्दर रचना कुन्ती जी //हार्दिक बधाई 

Comment by राजेश 'मृदु' on May 13, 2013 at 3:55pm

मॉरीशस की एक दास्‍तां से सुंदर अभिव्‍यक्ति के साथ परिचित करवाने के लिए धन्‍यवाद एवं आभार

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 12, 2013 at 6:14am

सुंदर कविता के साथ मरीसस की हरपरौरी का जिक्र ! नयी जानकारी मेरे लिए!.... पर यह कुप्रथा ही कही जायेगी! 

Comment by manoj shukla on May 11, 2013 at 6:03pm
बहुत सुन्दर रचना आदर्णीया... बधाई आपको
Comment by बृजेश नीरज on May 11, 2013 at 1:49pm

कुन्ती जी बहुत सुन्दर प्रयास! आपको बधाई!
आपने इस रचना को प्रारम्भ में समतुकान्तता पर बांधा परन्तु बीच में यह क्रम टूट गया।

कृपया ध्यान दे...

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