आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।
2122, 2122, 2122, 212
चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही
याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही
सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते हुए
भावना तो संग मेरे मौन बस तकती रही
ये सुबह भी रात का आभास देती है मुझे
इन उजालों में अंधेरे की लहर दिखती रही
दर-ब-दर हो हम तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए
प्रेम की इक ओढ़ चादर वासना फिरती रही
आंख ने तो अब सपन ही देखना चाहा नहीं
नींद ये फिर भी मुझे बदनाम ही करती रही
खोजता मैं फिर रहा हूं मस्तियां वो गांव की
भीड़ अब इस शहर की हर पल मुझे छलती रही
छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा
देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जी आदरणीय! प्रयासरत हूं किसी न किसी दिन तो यह विधा पकड़ में आ ही जाएगी!
सादर!
एक जगह तकाबुले रदीफ़ का भी दोष बन रहा है, भाईजी.. .
मगर कहते हैं न .. धीरे धीरे रे मना, धीरे सबकुछ होय.. . .... :-))
आपकी कोशिश मुग्ध कर देती है.
शुभेच्छाएँ
अरून भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय निकोर साहब आपकी बात से सहमत हूं। नियमों का जादू मैं भी महसूस कर रहा हूं।
आपका हार्दिक आभार!
वीनस भाई इता दोष की जानकारी मुझे नहीं थी इसलिए यह कमी रह ही गयी आखिर! आगे ऐसा कोई दोष मेरी रचना में न रहे ऐसा प्रयास करूंगा।
आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सौरभ जी आपका आभार!
आदरणीय संदीप जी से यह ज्ञात हुआ कि यह बहर मान्य नहीं इसलिए आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार इसमें बदलाव किया।
आहा आदरणीय बृजेश भाई वाह आनंद आ गया क्या कहने बदलाव अगर ऐसा हो तो होना चाहिए, सभी के सभी अशआर लाजवाब हुए हैं ढेरों बधाई स्वीकारें. जय हो
किसी एक शब्द के होने या न होने से लय में कितना फ़रक पड़ जाता है,
आपके प्रयास से यह ज़ाहिर है...जैसे कि निम्न में...."ही" और "इन" से।
मेरे पास आपकी गज़ल का पहला version नहीं है। यदि इ मेल में मुझको
उसे भेज सकें तो मैं प्रत्येक नए परिवर्तन को पुरानी पंक्ति के साथ देखना
चाहता हूँ।
सारी गज़ल ही इस तरह आपके प्रयास से और निखर आई है। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
//छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा
देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही//
वाह भाई !!!
ग़ज़ल की काया पलट गई
रेनोवेशन हो गया
आत्मा नए शरीर में प्रवेश कर गई
भाव भूमि उर्वरा हो कर हरियाली से भर गई
इस शेर में बहुत खूबसूरत मंज़र पेश किया है ....
छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा
देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही
बाकी के शेर भी मस्त मस्त हैं
हाँ जानकारों के बीच यह मतला चर्चा का विषय हो सकता है जिसमें बड़ी इता का दोष स्पष्ट रूप से दिख रहा है ...
हाथी निकल गया तो पूँछ क्यों अटकी रहे ... है न !
आपने तो अपना वो अर्कान ही बदल लिया. अच्छा किया मिसरे शब्द ढोने में असमर्थ हो रहे थे. मतला फिर से देखिये.
वैसे गाँव वाला मिसरा अभी तक बदस्तूर है.
प्रयास बढिया हुआ हैऔर करें.
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