एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी की मुहब्बतों के हवाले ....
वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे
पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे
मैं डर रहा हूँ कहीं वो न हार जाए मुझे
मेरी अना के मुक़ाबिल नज़र जो आए मुझे
मुझे समझने का दावा अगर है सच्चा तो
मैं उसको चाहता हूँ, अब 'वही' बताए मुझे
मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही
मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे
वो मुफ्त में मुझे हासिल नहीं है, तो वो भी
मुहब्बतों के हवाले से ही कमाए मुझे
मैं सुब्हो शाम पढ़े हूँ उसे फ़साने सा
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे
(मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फैलुन)
१२१२ ११२२ १२१२ २२
- वीनस केसरी
Comment
अमन कुमार जी पसंदगी के लिए शुक्रगुजार हूँ
बहुत सुंदर गजल वीनस जी,
मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही
मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे.....लाजवाब
अहा!
मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही
मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे............bahut khoob ...!
वाह वीनस जी खूबसूरत गज़ल लिखी है/.हार्दिक बधाई
बेहद खूबसूरत गज़ल लिखी है वीनस केसरी जी ... सभी अश'आर लाजवाब हैं .. खास तौर पे यह तो सीधा दिल में उतर गया ..
मैं उसको रात दिन पढूँ किसी फ़साने सा
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे... क्या बात है ..वाह...
गज़ल पढ़ के कुछ पंक्तियाँ मन में आई हैं .. कृपया अन्यथा न लें
गुरूर वो दिखाते हुक्म ऐसे देते हैं
खुदा से वो नाम अपने लिखा के लाए मुझे
वो मुफ्त में मुझे हासिल नहीं है, तो वो भी
मुहब्बतों के हवाले से ही कमाए मुझे
वाह वाह वीनस जी ये अंदाज़ भा गया आपका इस ज़मीर वाले शायर को नमन है बहुत शुभकामनायें !!
बहुत सुन्दर जनाब केसरी साहब
बहुत ख़ूब भाई जी! क्या बात है!! पिछले दिनों मुज़ारे पर हमारी लघु चर्चा हुई थी और कमाल देखिये आपने और मैंने -- एक साथ ही एक ही बह्र पर ग़ज़लें पेश कर दी हाँ ज़मीन भले ही अलग़ हो! :-)) शानदार ग़ज़ल हुई है मगर चंद शे'र तो ऐसे ही कि बस ज़बान पर चढ़े ही जा रहे हैं! विशेषकर..
वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे
पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे --> कसक और लगाव का इससे अच्छा क्या उदाहरण होगा भला..
मैं उसको रात दिन पढूँ किसी फ़साने सा
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे --> जनाब नज़ारे तो आप नए-२ दिखा रहे हैं अपनी कलम से.. बस मज़ा आ गया..
शुभकामनाओं एवं बधाई सहित..
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