साथी!
जिस राह पे चलकर तुम जाते
वह राह मनचली
क्यों मुड़ के लौट नही आती ...
ये बैरन संध्या
हो जाये बंध्या
न लगन करे चंदा से
न जन्में शिशु तारे
बस यहीं ठहर जाये
ये शाम मुंहजली
जो मुड़ के लौट नही पाती ...
श्वासों के तार
ताने पल पल
न टूट जायें
ये अगले पल
ले जाओ दरस हमारा
दे जाओ दरस तुम्हारा
यह लिखती पत्र पठाती
यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट नहीं पाती ...
ये राह दिवानी है
हमारे पिया गये जिस पर
न लौटे अब तक हाय
हमारा पिया हिरानी है
तेरी रज लूँ मै साथे!
मिला दे हमको पाथे
विनय सुने न हाय
हँसे जाती पगली
यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट नही पाती ...
तेरा गाली से श्रंगार करूं
बड़ा निठुर व्यवहार करूं
खो दूँ तुझको
खुरपी लेकर फरुआ से
महा प्रहार करूं
न ये न करना भोली
री! राह करे है ठिठोली
देखा तो पिया खड़े सम्मुख
वह भूल गयी सब वियोग दुःख
ले रही बलैयाँ सैयाँ की
करती राह की कजली
यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट यहीं आती ...
गीतिका 'वेदिका'
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आपका अत्यंत आभार आदरणीय किशोर कान्त जी!
इंतजार और विरह की पराकाष्ठा
दर्शाती पंक्तियां..// आदरणीय माथुर जी! आप ने रचना में अंतर्निहित तत्व को स्पर्श किया
आभार आपका !!
तेरा गाली से श्रंगार करूं
बड़ा निठुर व्यवहार करूं
खो दूँ तुझको
खुरपी लेकर फरुआ से
महा प्रहार करूं
इंतजार और विरह की पराकाष्ठा
दर्शाती पंक्तियां..
शुक्रिया आदरणीया महिमा जी!
आभार आदरणीय राजेश झा जी!
रचना पर विचार प्रकटीकरन के लिए
ये बैरन संध्या
हो जाये बंध्या
न लगन करे चंदा से
न जन्में शिशु तारे
बस यहीं ठहर जाये
ये शाम मुंहजली
जो मुड़ के लौट नही पाती ...
बड़ा ही मीठा उलाहना, सुंदर रचना के लिए ढेरों बधाई
आपने तो संयोग और वियोग की परिभाषा सुघड़ता से रच दी!
वियोग में प्रकृति की हर अंगड़ाई, हर दृश्य मन को अखरते ही हैं और संयोग के क्षण आते ही बबूल में हरीतिमा दिखने लगती है। इन भावों को आपने बहुत सुन्दरता से पिरोया है अपनी रचना में। आपको ढेरों बधाई इस रचना पर।
विश्वास अगर है तो ही है नई है तो वो अविश्वास ...
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