व्यथा!
तुम
मन के किबाड़े
खोलना मत
खोलना मत
सौ तरह के
व्यंग होगे
धूल धूसर
संग होंगे
भाव कोई गैर
अपनी
भावना में
घोलना मत
घोलना मत
व्यथा!
खुद से कहना
खुद ही सहना
तेरी
अंतर यातना
पर किसी से
बोलना मत
बोलना मत
व्यथा!
गीतिका 'वेदिका'
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आपका आभार जितेन्द्र जी!
आपको रचना सुंदर लगी ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है। आपने रचना के मर्म को जाना,, रचना सार्थक हुआ। आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल है। आपका आभार जितेन्द्र जी!
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय निकोर जी! आप की रचनाये भाव प्रधान रहती है … इस लिए जब आपकी प्रतिक्रिया रचना पर मिली तो लगता है रचना सही कसौटी से गुजरी। आपने बहुमूल्य राय से अवगत करने हेतु आभार आपका
आदरणीय जवाहर जी! महिमा जी की प्रतिक्रिया से तो मै भी सहमत हूँ
आपका शुक्रिया!
//खुद से कहना
खुद ही सहना
तेरी
अंतर यातना
पर किसी से
बोलना मत
बोलना मत
व्यथा! //
अति सुन्दर मार्मिक भाव!
बधाई, गीतिका जी।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया गीतिका जी, सादर अभिवादन!
महिमा जी की प्रतिक्रिया में सहमति ब्यक्त करता हूँ!
आभार जीतेन्द्र जी! आपने व्यथा की रचना में सुन्दरता खोज ली,,,
आभार आपका आदरणीय महिमा श्री जी!
//कहते है दुःख बाटने से घटता है और ख़ुशी बाटने से बढती है//
पर ये भी तो कहते है न "रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय
सुन अठलेहे लोग सब बाट न लेहे कोय" ……। पर फिर भी कुछ अपने होते होंगे महिमा जी! जिनसे अपने पीर व्यक्त किये जा सके।
आपका पुनः आभार भरे दिल से
खुद से कहना
खुद ही सहना
तेरी
अंतर यातना
पर किसी से
बोलना मत
....
बहुत खूब गीतिका जी अच्छी प्रस्तुति हैं पर कहते है दुःख बाटने से घटता है और ख़ुशी बाटने से बढती है .. सादर
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