तपत तलैया तल तरल, तक सुर ताल मलाल ।
ताल-मेल बिन तमतमा, ताल ठोकता ताल ।
ताल ठोकता ताल, तनिक पड़-ताल कराया ।
अश्रु तली तक सूख, जेठ को दोषी पाया ।
कर घन-घोर गुहार, पार करवाती नैया ।
तनमन जाय अघाय, काम रत तपत तलैया ।
तक=देखकर
मौलिक अप्रकाशित-
Comment
ताल और जेठ के अद्भुत श्लेष के कारण कुण्डलिया प्रभावी बन पड़ी है. अनुप्रास का महातम तो सर चढ़ कर बोल रहा है. कथ्य भी सधा हुआ है और तार्किक है.
शिल्प के लिहाज से इस उन्नत छंद रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय रविकर जी.. .
शुभम्
मजेदार! मूल भी संशोधित रूप भी!
बहुत सुंदर लिखा है रविकर जी.
आभार प्रिय अरुण जी -आदरणीय केवल प्रसाद जी आभार -
यह ठीक है क्या आदरणीय -
भाव का अभाव तो नहीं हैं ना -
सादर
दोहा
तप्त-तलैया तल तरल, तक सुर ताल मलाल ।
ताल-मेल बिन तमतमा, ताल ठोकता ताल ।
रोला
ताल ठोकता ताल, तनिक पड़-ताल कराया ।
अश्रु तली तक सूख, जेठ को दोषी पाया ।
कर घन-घोर गुहार, पार करवाती नैया ।
तनमन जाय अघाय, काम रत तप्त-तलैया ।
आदरणीय रविकर सर सादर प्रणाम अत्यंत सुन्दर मनोहारी कुण्डलिया छंद भीषण गर्मी को सुन्दरता से परिभाषित किया है आपने इस हेतु मेरी ओर से हार्दिक स्वीकारें.
आ0 रविकर जी, ‘तपत‘ और ‘तलैया‘ प्रथम और अन्तिम शब्द में समानता नहीं है और प्रथम चरण का प्रथम शब्द तीन मात्राओं का होने के कारण कुण्डलियां छन्द खारिज हो जाती है।
सुन्दर प्रयास हुआ है। शुभकामना स्वीकारें। सादर,
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