कल रविवार था ...
फिर उदास, सूनी शाम थी ...
देख रहा था
हल्की बारिश जो
सब कुछ भिगो रही थी
सामने पंछी रोशनदान
मे छिपने का प्रयास कर रहे थे
हवाएँ तेज चल रहीं थी
जो आँधी, रुकने के बाद भी
आँधी चलने का एहसास करा रही थी
मैं खड़ा अपने आपको खोज रहा था
सब कुछ फैला हुआ, तितर बितर था
अतीत के पन्ने अब भी
हवा मे तैर रहे थे
कुछ गीले, कुछ फटे
कुछ बिखरे पड़े थे
सब कुछ ठहर गया था
बारिश भी ...
यह रोज होता है
रोज आँधी आती है
रोज बारिश होती है
रोज अपने आपको खोजता हूँ
लेकिन यह उस दिन ज्यादा होता है
जब....
जब रविवार आता है ....
(रविवार को मेरी माँ ने हम सभी को भौतिक रूप से अलविदा कहा था ... )
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आभार प्राची जी आपका ... उत्साहवर्धन के लिए ....
मर्मस्पर्शी संवेदनाएं...
मैं खड़ा अपने आपको खोज रहा था
सब कुछ फैला हुआ, तितर बितर था
अतीत के पन्ने अब भी
हवा मे तैर रहे थे
कुछ गीले, कुछ फटे
कुछ बिखरे पड़े थे
सब कुछ ठहर गया था ................बहुत सुन्दर शब्द चित्र
सबके ह्रदय से कहीं न कहीं जुड़जाती , हामी पाती सी अभिव्यक्ति
शुभकामनाएं.
आदरणीय जितेंद्र जी बहुत बहुत आभार ...
आदरणीय मुकर्जी जी आभार ...
आदरणीय शुभंगना जी बहुत बहुत आभार ....
आदरणीय विजय निकोर जी आभार ....
सुन्दर भावाभिव्यक्ति।
बधाई।
सादर,
विजय निकोर
भावुक और व्यथा
दिल की व्यथा को बयाँ करते बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.
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