कश्ती को बस इक बार जताना है मुझे भी
जब तैर लिया, पार हो जाना है मुझे भी
जो अपने सिवा खास किसी को न समझते
कितना हूँ मैं दुश्वार बताना है मुझे भी
तूफाँ से यही बात कही, मैंने यहाँ पर
हर हाल चरागा ही जलाना है मुझे भी
अब छूट घटाओं को कभी दे नहीं सकता
पानी तो हर एक हाल पिलाना है मुझे भी
मत सोच सफ़र, पाँव मेरे बांध के रखना
जब वक्त कहे, लौट के आना है मुझे भी
जो आग लगाना ही बड़ा काम समझते
बस कह दो उसे,शहर बसाना है मुझे भी
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ. ललित कुमार जी सादर, मुझे गजल के बारे में बहुत जानकारी तो नहीं है मगर आपकी रचना पढ़कर अच्छा लगा. बहुत बहुत बधाई.
और वीनस भाई
वीनस भाई,
// अभी मित्रों को धींगा मस्ती करने देता हूँ , //
डॉ साहब ग़ज़लनुमा रचना कह कर १ महीने के लिए मित्रों को धींगा मस्ती करने के लिए दे देने का आपका ये तरीका भी नायाब ही है
मगर मुझे डर है अगर १ महीने की मियाद पूरी हो और आप अपने ही रचना को ग़ज़ल होने के बाद न पहचान सके तब क्या होगा ?
मेरे ख्याल से खुले मंच पर किसी रचना पर चर्चा हो सकती है इस्लाह नहीं ....
और न ही खुले मंच पर रचना १ महीने पगाई जा सकती है
आप अपनी और से पका कर पेश करें कहीं कुछ कमी रह जायेगी तो मंच पर इंगित करने वाले हिचकिचाते नहीं हैं मगर ग़ज़ल कहने का प्रयास मिश्रित तो नहीं हो सकता है
है न !!!
बाकी आपने अपने लिए जो नियम रख छोड़ा हो उसका पालन करें ... मुझे अजीब लगा सो कह दिया
अपनी नज़र में कच्ची रचना होने पर भी मंच पर प्रस्तुत करना अनुचित प्रतीत हुआ
मेरा कहना था कि मैं अभी इसमें खुद छेड़- छाड़ नहीं करने वाला हूँ,
आदरणीय ललितजी, पगने-पगाने के बाद ही तो कोई ग़ज़ल ग़ज़ल होती है और उसे आम किया जाता है. ऐसे नहीं तो.. ख़ैर..
यह सीखने-सिखाने का मंच है, आदरणीय. यहाँ नकारात्मक बातें कत्तई नहीं होतीं अलबत्ता रचनाओं का सकारात्मक विश्लेषण होता है. चूँकि अभी आप इस माहौल में नये हैं, कुछ सपाट बातें अजीब लगेंगी. ये शुरुआती दौर है, धीरे-धीरे आप रम जायेंगे.
किताब वाली बात जमी नहीं, सर. क्या ओबीओ के पन्ने अधपकी रचनाओं के लिए हैं ? तो फिर ऐसी रचनाओं पर एक पाठक को अपनी बातें कहने का हक़ है न, सर, ताकि रचना को पकने का खाद-पानी मिले.
आप कहते हैं कि आप इसमें कोई छेड़-छाड़ नहीं करेंगे. सर, बिना छेड़-छाड़ के या बिना सतत सुधार के तो कोई रचना या ग़ज़ल अपने आप पुख़्ता नहीं हो जाती. ऐसा हम सभी जानते हैं. सुझाव-सलाह की दरकार होती ही है न.
सादर
आदरनीय ललित जी
मत सोच सफ़र, पाँव मेरे बांध के रखना
जब वक्त कहे, लौट के आना है मुझे भी
पूरी ग़ज़ल की ही जितनी तारीफ़ की जाए कम है लेकिन मुझे यह शेर बेहद पसंद आया ..सादर
आदरणीय ललितजी, इस ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें.
कहन को थोड़ा और पगने दिया गया होता तो उचित होता. शिल्प और मिसरों के वज़्न के लिहाज़ से पुख्ता ग़ज़ल हुई है.
सभी ग़ज़लकारों से अनुरोध रहता है कि वे अपनी ग़ज़ल पोस्ट करने के साथ उसके मिसरों के वज़्न अवश्य लिख दें.
सादर
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