बदी की राह से अब तो निकाल दे मुझको
खुदाया जब भी दे रिज्के हलाल दे मुझको
नहीं मैं राई को पर्वत, न तिल को ताड़ कहूं
ज़ुबान साफ़ औ' सादा ख़याल दे मुझको .
तेरे लिए भी ये आसां नहीं है फिर भी कभी
तू आके चुपके से हैरत में डाल दे मुझको
जुनूने इश्क़ कहीं कुफ्र तक न पहुँचा दे
तू अपने गोशाये दिल से निकाल दे मुझको
मुझे भी पी के बहकना कभी गंवारा नहीं
मगर जो गिरने पे आऊँ, संभाल दे मुझको
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
ग़ज़ल के मतले में "निकाल" और "हलाल" काफिये लेकर आप व्यंजन "ल" हर्फ़-ए-रवी तस्लीम कर चुके हैं लिहाज़ा दूसरे शेअर में "मिजाज़" काफिया नहीं लिया जा सकता आदरणीय ठाकुर जी, ज़रा इस शेअर पर नज़र-ए-सानी फरमाएँ.
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