कुछ झोपड़ों को रोंद के जो घर बना रहा
इस दौर में वो सख्स ही मंजिल को पा रहा
जितना नहीं है पास में उतना लुटा रहा
कितना अमीर है ग़मों में मुस्कुरा रहा
अपनी ही गलतियों के हैं कांटे चुभे हमें
वरना सफर तो जिन्दगी का गुलनुमा रहा
कहने का शौक औ जुनूं उसका न पूछिए
बेबह्र भी कही ग़ज़ल वो गुनगुना रहा
शायद शहद झड़े है उसकी बात से यहाँ
इक झुण्ड मक्खियों सा क्यूँ ये भिनभिना रहा
जब मुल्क में मची है यूँ हर ओर खलबली
तब हर सफ़ेद पोश अपना दम दिखा रहा
है रस्म या की कैद ये कपड़ों की क्या कहें
जो नंगपन विदेशियों का सबको भा रहा
जितना किया है उसको उतना मिल गया तो फिर
हाथों की इक लकीर से क्यूँ मात खा रहा
कोई न आरजू थी न थी जुस्तजू न जिद
लेकिन तब उसके हाथ में इक झुनझुना रहा
लगता है परवरिश में कोई तो कमी थी यार
बेटा बड़ा हो हमको ही आँखें दिखा रहा
शायद दुखा के दिल किसी अपने का है खड़ा
वो “दीप” अपने आप से नज़रें चुरा रहा
संदीप पटेल “दीप”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आप सभी मित्रों का हृदय से धन्यवाद और सादर आभार
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए
आदरणीय वीनस जी सादर
आपकी प्रतिक्रिया का प्रसाद पाकर ये रचना सफल हुई
आपके सुझाव और मार्गदर्शन सदैव अपेक्षित हैं सादर
अपनी ही गलतियों के हैं कांटे चुभे हमें
वरना सफर तो जिन्दगी का गुलनुमा रहा
वाह भाई क्या कहने ... शानदार
जीवन की छुपी कड़वाहट के साथ ही अच्छा व्यंग्य भी है.आपकी लेखनी में हमेशा से दम रही है.
''कहने का शौक औ जुनूं उसका न पूछिए
बेबह्र भी कही ग़ज़ल वो गुनगुना रहा''
आपकी ये बात मेरे जैसे लोगों पे पूरी तरह लागू होती है. यूँ लग रहा है मेरे दिल की बात आपने कह दिया हो
इस ग़ज़ल के लिए आपको बधाई
ati sundar wah.....badhai
लगता है परवरिश में कोई तो कमी थी यार
बेटा बड़ा हो हमको ही आँखें दिखा रहा
आदरणीय संदीप जी नमस्कार,
बहुत सटीक व अच्छी रचना !
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