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शहर के बड़े चैराहे पर

जो बड़ी दीवार है

उसके पास से गुजरते हुए

अक्सर मन होता है

लिख दूं उस पर

‘लोकतंत्र’

लाल स्याही से।

 

एक बड़ा लाल चमकता हुआ

‘लोकतंत्र’

जो दूर से साफ चमके।

 

जब भी होता हूं वहां

कांव कांव करता एक कौआ

आ बैठता है दीवार पर

मानो आहवाहन करता हो

‘आंव, आंव

लिख दो इस दीवार पर

जग जाएं पशु, पक्षी, लोग

ढूंढकर निकाली जा सके

फाइलों और योजनाओं के

बोझ तले दबी जनता’।

 

कभी कभी हाथ उठते भी हैं

लेकिन कायर दिमाग

अनुमति नहीं देता।

 

दिमाग याद करता है

जब एक कवि ने

कोशिश की थी पहले

‘लोकतंत्र’ लिखने की

इसी दीवार पर।

अभी लिख ही पाया था ‘ल’

कि मिटा दी गयी इबारत

पोत दी गयी दीवार

झक सफेद रंग से।

वह कवि

तब से गायब है।

           - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by सानी करतारपुरी on July 4, 2013 at 11:16pm

आदरणीय  वर्तमान को खूब सफलता से  चित्रित किया है.. बधाई 

Comment by MAHIMA SHREE on July 4, 2013 at 11:11pm

बहुत सी सार्थक  समसामयिक  प्रस्तुति आदरणीय ब्रजेश  जी .. बधाई आपको ..

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 9:56pm

आदरणीय रविकर जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आयी मेरा प्रयास सार्थक हुआ। आपने तुरंती के रूप में मेरी रचना को जो आशीष दिया है उससे बड़ा पुरूस्कार मेरे लिए क्या हो सकता है! पुनः आपका बहुत आभार!
सादर!

Comment by रविकर on July 4, 2013 at 9:51pm

मद में रिश्ते-नात, आज वर दिखे सिरी है |

Comment by रविकर on July 4, 2013 at 9:50pm

बहुत प्रभावी ढंग से विषय को प्रस्तुत किया है आपने-
बहुत बहुत बधाई आदरणीय -
एक तुरंती आप के सम्मान में पेश है-
सादर -(प्रिंटिंग की गलती हो जा रही थी बार बार)

लोकाचार विचार शुभ, लो कर लो पर बात |
लोक लोक इह लोक में, निकली तंत्र बरात |
निकली तंत्र बरात, रात घनघोर घिरी है |
मद में रिश्त-नात, आज वर दिखे सिरी है |
ला पर लाठी जोर, अक्ल वाला है बोका |
गय पानी में भैंस, लोक सिधरे परलोका -

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 9:23pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आयी मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 4, 2013 at 8:52pm

सशक्त .. .

व्यवस्था की विसंगतियों से झल्लाया मन चाहता तो बहुत है लेकिन विवशता ढोने को अभिशप्त है.

ज़िन्दग़ी को चूसती अमरबेलें कई रूपों में हैं जो खुल कर लहराने नहीं देतीं.

बहुत बहुत बधाई, भाई.. .

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