कितना ही पास हो मृत्यु-मुखद्वार
सीमित सोचों के दायरों में गिरफ़्तार,
बंदी रहता है प्रकृत मानव आद्यंत ...
इर्ष्या, काम, क्रोध, मोह और लोभ,
राग और द्वेष
रहते हैं यंत्रवत यह नक्षत्र-से आस-पास,
प्रक्रिया में बन जाते हैं यह मानव-प्रकृति,
विकृतियों में व्यस्त, मिलती नहीं मुक्ति।
अहंमन्यता के अंधेरे कुँए में निवासित
अभिमान-ग्रस्त मानव संचित करे भंडार,
कुएँ की परिधि में वह मेंढक-सा सोचे
‘कितना विशाल है मेरा यह संगृहीत संसार’।
ज्ञान-सूर्य की प्रज्वलित किरणें प्रदीपक
ज्योतित करें दिशाकाश को, सृष्टि-विस्तार को,
पर प्रतिस्पर्द्धी मानव की झोली पूंजी से संचित,
करती है ज्ञान-ज्योति को पास आने से वंचित।
जाने कब किस पल खुल जाए मृत्यु मुखद्वार,
क्षणभंगुर जीवन, दायें और बायें निराशा और वेदना,
पर प्रक्रिया के शोर में भी जीती है आत्मसंग चेतना,
सुपरिष्कृत अन्त:करण पर छा जाती हैं कुछ किरणें,
प्रकाशमय हो जाते हैं मानव के बुद्धि-मनस पटल,
विवेक और वैराग्य अब बन जाते हैं उसके संबल,
काल-धारा-गति की अनुभूति करती है उसे चंचल,
अस्थाई संबंधों को तज, तरंगित होता है आनन्द।
इस गहन परिवर्तन में सत्य को अनुभूत करता
वह व्यक्तित्वहीन मानव अब पाता है स्वयं को
विशाल प्रकृति के बीच नामहीन, मात्र अणु-सा,
अपनी सीमित सोच के बंदीगृह से मुक्त,
अपने कुँए के बाहर के संसार से संयुक्त,
स्वयं-चैतन्य की आंतरिक संपन्नता सम्मुख,
सामंजस्य और संतुलन से अब द्रव्य है अहं,
मानव औ’ प्रकृति एकत्व में हो गए हैं इकाई।
... हरि ॐ तत सत! ... हरि ॐ तत सत!
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- विजय निकोर
६ जुलाई,२०१३
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राजेश जी:
रचना को आप से मान मिला, आपका हार्दिक धन्यवाद।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय विजय जी, आपकी प्रस्तुति से मन संतुष्ट नहीं हुआ. यह लिखने के क्रम में हुई रचना है.
कई शब्द मात्र शब्द हैं. सादर
आदरणीया कुंती जी:
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार।
सादर,
विजय
आदरणीय विजय निकोर जी बहुत ही सुन्दर रचना हुई है //हार्दिक बधाई
बहुत ही बेहतरीन रचना, पूरे जीवन का सार स्पष्ट करती । सादर
आदरणिय निकोर जी , आप की दार्शनिक रचनाएँ सदा ही प्ररक रहेगी.
सादर
कुंती
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