मेरे जीवित होने का अर्थ -
-ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ !
-ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को !
ध्रुवीकरण को मानक आचार नही माना जा सकता !
मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना !
मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !
संभव है-
कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !
मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !
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……………………................………… अरुन श्री !
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
चंद्रशेखर पाण्डेय भाई , आपकी टिप्पणी तो मेरी रचना से कहीं अधिक ऊपर और सारगर्भित है ! जिस तरह से आपने मर्म को समझा और कहा वो अत्यंत सुखकर है और मेरा भी ज्ञानार्जन करने वाला है !आप जैसे प्रबुद्ध मित्र का होना सुखकर है मेरे लिए ! बहुत बहुत धन्यवाद भाई !
सादर !
देवत्व अभीष्ट नहीं, आपने बिल्कुल सत्य कहा। स्वयं समय समय पर मनुष्यत्व की स्थापना हेतु देवताओं का अवतरण स्वयं यही सिद्ध करता है कि यह अपने आप में एक अभीष्ट है। तभी तो श्रीकृष्ण कहते हैं - लोकसंग्रहमेवापि संपश्यनकर्तुमर्हसि। पलायन मूल्य नहीं, लिप्तता मूल्य नहीं और इसीलिए पुन: परिभाषित करते हुए स्थितप्रज्ञता को संकेतित किया गया है श्रीमुख से, जहाँ स्वयं प्रभु कहते हैं कि यथाकूर्मोसंहरतिचायं सर्वांगानीव सर्वश:। आपकी "तटस्थता" का संप्रत्यय मुझे इस "स्थितप्रज्ञता" के ज्यादा निकट दिखाई दिया। सुन्दर रचना हेतु बधाई। तटस्थता को अवश्य परिभाषित करें……………! एक और सुन्दर रचना के लिए सादर प्रतीक्षारत।
आदरणीय बृजेश नीरज जी , कविता से आपका इस तरह जुडाव कविता के लिए , मेरे लिए अतुलनीय सम्मान है ! मेरी इन कुछ बेतरतीब पंक्तियों को आपकी टिप्पणी ने सफल और सार्थक साहित्य बना दिया ! धन्यवाद !
राजेश कुमारी मैम , भावों को सराहने के आपका हार्दिक धन्यवाद ! सादर !
आदरणीय सौरभ सर , सच कहूँ तो मुझे भी प्रतीक्षा थी आपकी ! कारण कई हैं लेकिन महत्वपूर्ण ये कि आप कमियों की ओर ध्यान दिलाते हैं एक शिक्षक की तरह ! आपकी द्वारा सराहां जाना अग्निपरीक्षा में सफल होने जैसा है ! आभारी हूँ आदरणीय ! सादर !
मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !
संभव है-
कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण ! वाह !! आंतरिक उत्कृष्ट भावों को सुन्दरतम शब्दों में बाँधा है बहुत बढ़िया हार्दिक बधाई इस गहन रचना पर
मैं निःशब्द हूं। मेरी जो खीझ थी, छटपटाहट थी उसे शब्द मिल गए। अब शांत हूं। यही एक कविता का सच है पाठक के लिए।
आपको नमन!
मैं इस रचना पर टिप्पणियों के माध्यम से अपनी उपस्थिति नहीं बना सका हूँ, इसका भान तक नहीं था. जबकि मैंने इसे पढ़ा है.
मानवीय मूल्यों की तथ्यात्मकता में लगातार आ रहे खोखलेपन पर कवि के सान्द्र भाव चकित करते हैं.
रचना से दायित्त्व-निर्वहन और वैचारिकता का प्रौढ़ स्वरूप निखर सामने आया है.
रचना हेतु बधाई
महिमा श्री मैम , आपके अमूल्य विचारों और रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद !
राजेश कुमार झा सर , हार्दिक धन्यवाद आपका !
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