बहर: हज़ज मुसम्मन सालिम
वही दिलकश नज़ारा हो वही मौसम सुहाना हो,
वही खिलते हुए फूलों सा तेरा मुस्कुराना हो,
जुबां से कह नहीं पाया नज़र से तुम नहीं समझी,
बताना हो बड़ा मुश्किल कठिन उससे छुपाना हो,
पलटकर देखना तेरा ग़लतफ़हमी सही मेरी,
इसी धोखे के चलते बेवजह हँसना हँसाना हो,
अदा इक तो सनम कातिल खुदा से तुमने है पाई,
गिरे बिजली मेरे दिल पे जो तेरा भीग जाना हो,
चुराने आँखों से काजल फलक से आ गए बादल,
घटा घनघोर घिर आये जो नज़रों का झुकाना हो.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया कुंती जी
घटा घनघोर घिर आये जो नज़रों का झुकाना हो.
आकर्षित करता है ये शेर वाह !!
वाह! बहुत ही सुन्दर! लाजवाब!
वाह वाह!
वाह वाह!
"पलटकर देखना तेरा ग़लतफ़हमी सही मेरी,
इसी धोखे के चलते बेवजह हँसना हँसाना हो,""वाह ! आदरणीय..अरुण जी, बेहतरीन..बहुत शानदार शेअर..तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये
वाह! बहुत ही सुन्दर! लाजवाब! जितना पढ़ो दिल उतना ही मचलता है। हार्दिक बधाई आपको!
आदरणीय अरुण जी बहुत ही बढ़िया गजल को साझा करने के लिए बधाई ।
बहुत ही दिलकश गजल है.
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