बहुत देर से
धूप ही धूप थी
दूर तक
कोई दरख्त नहीं
जिसकी छाँव तले मै
आ जाऊं !
बहुत दिनों से
कंठ सूखा था
दिनों तक कोई
लहर नहीं
जिसे जी भर मै
पी जाऊं !
कई जेठों से
स्वेद की कितनी बूंदें
माथे छलछलाती थीं
कब शीतल पुरवाई में
समा जाऊं !
आ जाओ
बस आ ही जाओ
मेरी जिन्दगी
छाँव, तृप्ति और श्वास
मेरी तुम !
-जीतेन्द्र 'गीत'
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय लछमण जी,
आपने रचना पर दृष्टि डाली, लेखन कर्म को सार्थकता का प्रमाण मिला , बहुत बहुत आभार आपका..
आदरणीया अन्नपूर्णा जी,
आपने रचना को सराहा , रचना सार्थक हुई.. बहुत बहुत आभार
आदरणीया डा. प्राची जी,
आपने रचना के मर्म को छुआ ,आपका बहुत बहुत आभार
आदरणीय..बृजेश जी,
यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है , कि प्रथम कविता रचना पर आपका आशीर्वाद मिला
आदरणीय केतन जी,
//jaise kuch baat adhuri rah gayi hai//
कोई स्पेस्फिक पंक्ति, बंद, भाव,गेयता आदि सम्बंधित जो भी त्रुटी हो, इंगित करेंगे तो सुधार की ओर अग्रसर हो पाउँगा|
आदरणीय केतन जी,
यह मेरे जीवन की प्रथम कविता रचना है,इसलिए जैसे भाव आये ,पिरो दिए,.. आप साथ देंगे ,अवश्य सीख जाऊंगा, भाई जी
सादर
अपने मंच का एक संवेदनशील पाठक कवि हो गया !
इस वैचारिक कायाकल्प पर अतिशय बधाइयाँ, जीतभाईजी.
शुभ-शुभ
आदरणीय जीतेंद्र जी, बढ़िया कविता लिखी है...
हार्दिक बधाइयाँ !!
आ जाओ
बस आ ही जाओ
मेरी जिन्दगी
छाँव, तृप्ति और श्वास
मेरी तुम !--------------पूरी रचना के भाव को समेटे सुन्दर पंक्तियों में आपकी जीत दिखाई दे रही है |
हार्दिक बधाई श्री जितेन्द्र "जीत" जी
बहुत ही भाव पूर्ण शब्दों मे पिरो कर रची गई कविता के लिए बधाई स्वीकारें , आ० जितेंद्र भाई जी ।
प्यासे को पानी सा, जेठ में सावन सा, धूप में छाँव सा कोई अपना... उसे पुकारते अंतर्भावों की अभिव्यक्ति का सुन्दर प्रयास
हार्दिक बधाई
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