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1-
शाश्वत प्रेम सदैव है, सृष्टि आदि अनुमन्य।
यह ईश्वर का अंग है, करके सब हों धन्य॥
करके सब हो धन्य, जगत का सार यही है।
वश में होते ईश, प्रेम का काट नहीं है॥
कबिरा मीरा सूर, शशी आदिक इसमें रत।
नहीं वासना युक्त, प्रेम तो सत्व शाश्वत॥

2-
बहती गंगा प्रेम यह, बांध सका नहिं कोय।
अन्हवाये तन प्रेम में, हर मन निर्मल होय॥
हर मन निर्मल होय, कलुष अंतर का मिटता।
नहीं वासना युक्त, प्रेम वश ईश्वर मिलता॥
निकल अचल हिमवान, सिन्धु चंचल में मिलती।
गंगा प्रेम प्रतीक, निरंतर कलकल बहती॥

मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)

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Comment by Sarita Bhatia on July 22, 2013 at 11:07pm

आदरणीय सुंदर भाव लिए कुण्डलिया के लिए बधाई स्वीकारें

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 22, 2013 at 9:42pm

कबिरा मीरा सूर, शशी सब इसमें मत।
नहीं वासना युक्त, प्रेम तो सत्व शाश्वत॥

बहुत ही सुन्दर भाव और शब्द समन्वय!

कृपया ध्यान दे...

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