बेजान कमरे में
टूटी खटिया पे लेटा
करवट लेते हुए
आँखों के पूरे सूनेपन के साथ
कभी कभी खिड़की के
बाहर देखता हूँ
कैसी है दुनियां
क्या वैसी ही है
जैसी पहले हुआ करती थी
दर्द के समंदर में
निस्पंद जड़ सा
सोचता रहा
अपने ही अपने नहीं रहे
ये गुमशुदी का जीवन कब तक
एक चिंता जाती
तो दूसरी उत्पन्न
देखता रहता हूँ
सजीव कंकाल सा
इधर उधर
बस जिंदा हूँ
औपचारिक
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीया महिमा जी //सादर
धीर गंभीर चितंन मनन के क्षणों का सुंदर प्रस्तुति आ. राम शिरोमणि जी बधाई
हार्दिक आभार आदरणीय आशुतोष मिश्र जी //सादर
हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी //सादर
अकेले होने के क्रम में यह भी एक 'मज़ेदार' फेज है, भाई.. .
बढ़िया.. .
hardik badhayee sweekarein
hardik aabhar bhai arun sharma anant ji//saadar
hardik aabbhar bhai brijesh singh jj//saadar
आदरणीय राम भाई, लाजवाब! बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई!
बेहतरीन भाई बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति वाह क्या कहने हार्दिक बधाई स्वीकारें
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