फूल चम्पा के सब खो गए
जब से हम शह्र के हो गए
रात फिर बेसुरी धुन बजाती रही
दोपहर भोर पर मुस्कुराती रही
रतजगों की फसल
काटने के लिए
बीज बेचैनी के बो गए
प्रश्न पत्रों सी लगने लगी जिंदगी
ताका झाकी का मोहताज़ है आदमी
आयेगा एक दिन
जब सुनेंगे यही
लीक पर्चे सभी हो गए
मौल श्री से हैं झरते नहीं फूल अब
गुलमोहर के तले है न स्कूल अब
अब न अठखेलियाँ
चम्पई उंगलियाँ
स्वप्न आये न फिर जो गए
(मौलिक अवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राणा प्रताप जी:
//रात फिर बेसुरी धुन बजाती रही
दोपहर भोर पर मुस्कुराती रही
रतजगों की फसल
काटने के लिए
बीज बेचैनी के बो गए//
इतना सुमधुर और भावुक गीत मंच पर साझा करने के लिए धन्यवाद!
सादर,
विजय निकोर
मौल श्री से हैं झरते नहीं फूल अब
गुलमोहर के तले है न स्कूल अब...,,फूलों सी बरसती..मन में इक टीस उभारती सुन्दर रचना राणा जी..
वाह !
गुलमोहर के तले है न स्कूल अब ......... कुछ धंस गया मन में ! कमाल का गीत ! शब्दों से परे बहुत कुछ है जो महसूस करने पर बेसुध हो जाना विवसता है ! लगता है जैसे चंद पंक्तियों में वर्षों का अनुभव और मर्म समा गया है ! नत हूँ !
आदरणीय अभिनव जी ..आपने रचना सराही मेरा लेखन सफल हुआ| हार्दिक धन्यवाद|
गीतिका जी गीत पसंद करने के लिए शुक्रिया|
आदरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी आपके तो नाम में ही गीत है, गीत आपने पसंद किया ...मेरा प्रयास सफल रहा, बहुत बहुत धन्यवाद|
आदरणीय बृजेश नीरज जी गीत पसंद करनें के लिए शुक्रिया|
विवेक भाई ..गीत में प्रयुक्त बिम्बों को सरहाने के लिए तहे दिल से आभार|
आदरणीय Laxman Prasad Ladiwala जी रचना पर आपकी सार्थक टिपण्णी के लिए आभार|
आदरणीय सौरभ सर ...गीत की आत्मा तक जाकर ..उत्साह वर्धन करने हेतु हार्दिक धन्यवाद|
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