बार बार भीड़ में
ढूँढता हूँ
अपना चेहरा
चेहरा
जिसे पहचानता नहीं
दरअसल
मेरे पास आइना नहीं
पास है सिर्फ
स्पर्श हवा का
और कुछ ध्वनियाँ
इन्हीं के सहारे
टटोलता
बढ़ता जा रहा हूँ
अचानक पाता हूँ
खड़ा खुद को
भीड़ में
अनजानी, चीखती भीड़ के
बीचों बीच
कोलाहल सा भर गया
भीतर तक
कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती
शब्द टकराकर बिखरने लगे
मैं ढूँढता हूँ
गुलाब की इन
बिखरी पंखुड़ियों पर जमा
ओस की बूँदों में
अक्स
लेकिन वहां है
सिर्फ अकेली टहनी
शायद इस घास पर हो
पद चिन्ह
पर यहाँ मिली
एक लकीर
जिस पर होकर
गुजर रही हैं चींटियां
चींटी, घास, पंखुड़ी, ओस
सब बेखबर हैं उस भीड़ से
जो घेरे है मुझे
भीतर बाहर
अब मैं पकड़ना चाहता हूँ
हवा को
लेकिन हवा गर्म है
और ध्रुवान्तों की
बर्फ पिघल रही है
नदी में पानी बढ़ रहा
और इस भीड़ में खोया
मैं चिंतित हूँ
अपने उस चेहरे के लिए
जिसे पहचानता नहीं
लेकिन जिसके
पिघलने का खतरा है।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय ब्रजेश ,जी सुन्दर और शानदार प्रस्तुति के लिय बधाई
आदरणीय बृजेश भाई जी अंतर्मन से निकली सुन्दर भावों की माला को पिरोती इस शानदार प्रस्तुति पर ढेरों बधाइयाँ.
आदरणीय बृजेश जी,
सशक्त भाव से ओत प्रोत रचना अभिव्यक्ति पर, हार्दिक बधाई स्वीकार करें
आदरणीय ब्रिजेश जी शानदार अभिव्यक्ति है
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय राज भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया महिमा श्री जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया विनीता जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
अपने चेहरे को अपने ही अंतर्दर्पण में देखना चाहिये अन्यथा,..... कभी भी रूख बदलती गर्म हवाएं और अंतर्मन की शान्ति को अपने कोलाहल से ध्वस्त कर देने वाली भीड़ की हर दिशा से भेदती आती चीखें..उस चेहरे के उभरने से पहले ही उसे पिघला देती हैं गला देती हैं...
इस अविश्वसनीय अपनों की भीड़ में स्वयं के सत्य स्वरुप को ढूंढती रचना और प्रयुक्त कई बिम्ब बहुत पसंद आये.
हार्दिक बधाई
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