शरीफों में शराफत नहीं
सिंह बकरी सा मिमियाए.
देख के, भारत माता का
आंचल भी शर्माए.
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दुष्ट कब समझा है जग में
निश्छल प्रेम की परिभाषा.
अपनी ही लाशों पर लिखोगे
क्या देश की अभिलाषा.
लाल पत्थर की दीवारें भी
महफूज़ नहीं रख पाएंगी .
सीमा पर बही रक्त जब
दिल्ली तक तीर आएगी .
सत्ता सुख क्षणिक है
सदैव नहीं रह पायेगा.
दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर
जब फिर से नादिर आएगा.
सत्ता के स्वार्थ में
इतिहास भुला कर बैठे हैं.
तत्क्षण रौशनी के लिए
घर को जला कर बैठे हैं.
वंचक है, खुद ही को ठग रहे
दीवाने हैं, ये सत्ता के मलंग है .
अपनी संतती को निगलने वाले
काले विषधर भुजंग हैं .
दह में उतरकर भीतर
व्याल बांधना होगा.
तोड़ दन्त विषधर के
हथेलियों में फन थामना होगा .
कवि कर्म है मेरा
तुम्हें जगाता रहता हूँ.
आने वाले कल की
तस्वीर दिखाता रहता हूँ.
आँखें बंद कर लेने से
तस्वीर नहीं बदलती है .
दवा कडवी हो कितनी भी
फिर भी निगलनी पड़ती है .
..................नीरज कुमार ‘नीर’
मेरी यह कविता पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित है .
कुछ शब्दार्थ /भावार्थ :
8. व्याल : सर्प
Comment
बहुत खूब .............. बधाई
बहुत सुन्दर,,,सादर बधाई !
बहुत सुन्दर,,,सादर बधाई !
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... |
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