मै क्या लिखूं ,ये कैसे लिखूं और वो कितना लिखूं ,क्या शुद्ध है और परिष्कृत है और क्या अस्वीकार्य है? ये वरिष्ठ साहित्यकारों की जमात नहीं मेरे समझने वाले पाठक तय करेंगे तो मुझे खुशी होगी और मेरा सृजन सफल होगा ! मुझे किसी वरिष्ठ पर कोई विश्वास नहीं,हो सकता है वो अपनी आलोचनाओं से मेरी ठीक-ठाक रचना का कबाडा कर दे ! मुझे अपने से जूनियर और अपने समकालीन मित्र से अपनी सृजन पर समीक्षा लिखवाना अच्छा लगता है और इससे मुझे और लिखने का हौसला मिलता है ! मुझे नहीं लगता कि आपके द्वारा सृजित सामग्री को किन्ही नाम-वरों की आलोचना की जरुरत है, सिवाय मंचों से चाशनी में डुबोए शब्द सुनने के ! मै दुकान लिखूं या दूकान लिखूं ये परम्परा नहीं बल्कि मेरा पाठक तय करेगा ! अगर मेरा पाठक शुद्ध दूकान की बजाय आधुनिक दुकान को लेकर ज्यादा सहज है तो मुझे दूकान को कूड़े में डालकर दुकान लिखने में कोई दिक्क्त नहीं ! साहित्य एक प्रयोगशाला है और यहाँ सब आइंस्टीन हैं ! अत: यहाँ किसी आर्कमिडिज की अलग पहचान नहीं ! युवाओं से अपील है कि अपना लिखो और अपनी समझ का लिखो ! हो सके तो दूसरों की सुन लो,ना समझ में आये तो छोड़ दो ! बस इतना याद रखो कि ये महावीर प्रसाद द्विवेदी(विशेषण) के वंशज अगर गलती से भी भी उस फक्कड कबीर के दौर में होते तो उनकी कालजयी(आज की तब की नहीं ) रचनाओं का क्या बुरा हाल किये होते ! अवसर की लड़ाई है,लिखो और खूब लिखो ! यहाँ कोई वरिष्ठ नहीं कोई कनिष्ठ नहीं !!
नोट : इन पंक्तियों से आपको असहमति हो तो बीमार ना होइए मौसम खराब चल रहा है ! आप अपना लिखिए और अगले को अपना लिखने दीजिए ! आप भी अच्छे हैं वो भी अच्छा है ! सों, नो इंटरफियारेंस प्लीज :)
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
शुभ्रांशु ! सहित और गलत कौन तय करेगा ? मै दूकान लिखूं या दुकान लिखूं ? ये कौन तय करेगा ? मेरा पाठक या आप ? वैसे भी समकालीन साहित्य में क्रान्ति की संभावना इतनी है कि घर में रोटी बन रही तो क्रान्ति करके दाल भी बनवा लेंगे ! इससे ज्यादा आपको कुछ दिख रहा हो तो आपके पाक पास दिव्य दृष्टि है !! आप महान हैं प्रभु ,
हे विद्वान भाई साहब, आपको अपनी प्रजाति बताने की आवश्यकता नहीं है, वो आपके लेख और आपके विचारों से पता चल जाता है. हाँ, मुझे इस बात कि जानकारी नहीं है कि आपने आलरेडी कमाल किया हुआ है या आप कमाल की अगली कड़ी हैं. कबीर बाबा तो जिन्दग़ी भर कमाल को ले कर रोते रहे... बूड़ा बंस कबीर का उपजा पूत कमाल...
मान्यवर, कबीर कभी भी साहित्यकार खुद को क्लेम नहीं किये. भक्ति और समाज को कही गयी आंचलिक भाषाओं की रचनाओं को उसी दायरे में ही रहने दें, आजकल के तथाकथित रचनाकार अपनी गलतियों को छिपाने के लिये कबीर का आवरण ले लेते हैं. और व्यवस्थित साहित्यकार उनके लिये परदेसी नहीं अपितु परग्रही तक हो जाते हैं.
हे विद्वान्, जहाँ तक बात व्यवहारिक जीवन की है, तो मेरी एक बात सुनिये..... एक पिता अपने पाँच वर्ष के पुत्र को छज्जे पर चढा दिया और वहाँ से कूदने को कहा, पुत्र इस विश्वास के साथ कि पिता बचा लेंगे, कूद पडा़. लेकिन पिता वहाँ से हट गया. बच्चे को चोट आई. उसी समय पिता ने व्यवहारिक जीवन का पहला पाठ पढ़ाया कि अपने बाप पर भी भरोसा मत करो. शायद आप इसी व्यवहार की इजाद हैं और इसी व्यवहार का विस्तार चाहते हैं. ...... ऐसे घोर कलयुग में कोई आपके भले के लिए क्यों लिखेगा ... ऐसे विचार उसी व्यवहार की कडी़ लगते हैं.
भाई साहब, सार्वजनिक शौचालयों पर कई बार आपने चित्रकारी देखी होगी. राजा रवि वर्मा भी चित्रकार थे, अब आपका संसर्ग और संपर्क पहले वाले लोगों से है तो ये आपकी अपनी समस्या है, इसका समाधान (अगर चाहें) तो आपको ही करना होगा.
यह मंच मठाधीशों का मंच नहीं है. लेकिन द्विवेदियों को हमने त्यागा नहीं है. साहित्य में तो हमेशा सही और गलत का निर्धारण होगा, होना ही चाहिये. नहीं बर्दाश्त हो तो ब्लागिया बनने में क्या बुराई है?????
सादर.
बात लेख पर हो, तथ्यों पर हो, तार्किक हो किन्तु कदापि व्यक्तिगत न हो, यही अनुरोध है ।
शुभ्रांशु जी ! आलोचना से मै भागता कब हूं लेकिन मै किसी की आलोचना को सही मान लूँ इसको लेकर बहुत दूजे किस्म का इंसान हूं ! देश-दुनिया तो आप देख ही रहे हैं,बाप बेटे का और बेटा बाप का नहीं ऐसे में अपना माथा अपग्रेड करने की जरुरत है बजाय कि किसी की आलोचना और समालोचना पर विश्वास करने ! ऐसे घोर कलयुग में कोई आपके भले के लिए क्यों लिखेगा ! व्याहारिक जीवन जीरो नहीं है आपका ना ?
महोदय
मुस्कुराने पर पाबंदी भी तो नहीं है .... :)))))))))))))))))))))
आपसे सवाल जवाब करना भी मेरी क्षमता से बाहर की चीज है ...
बस् जो समझ नहीं आया सोचा आपसे स्पष्ट कर लूँ ...
खैर आप बुद्धिजीवी हैं और हम निपट सलोथारनाथ टाईप के जीव हैं ....
आपकी जय जयकार करते हुए आपको दंडवत प्रणाम करने में ही हमारी भलाई है ....
आपकी कबीराई को दंडवत प्रणाम ...
चरण स्पर्श
वीनस केसरी जी ! पढ़ने के बाद देर तक मुस्कराए फिर इतना कमेन्ट लिखे ! देर तक मुस्कराने में काफी वक्त खर्च किये ! यहाँ मुस्कराने की कोई प्रतियोगिता नहीं हो रही ! सवाल-जवाब वो भी सीधा सपाट ! यहाँ कोई गज़ल और नज़्म नहीं लिखनी ना :)
भाषा का महत्व उतना नहीं है जितना संचार और संप्रेषण का है ! संचार और संप्रेषण के लिए भाषा बनी है न कि भाषा के लिए संचार-सम्प्रेषण ! ओ शुद्धता के ठेकेदारों सुनो, क्या तुम्हे पता भी है कि अपनी इस नुक्ता-चीनी करने की आदतों के कारण तुमने कितने नव संचार वाहकों नव-साहित्यकारों कॉ गला घोंटा होगा ! तुम्हारे रहते कबीर नहीं पैदा हो सकते और ना तुम्हारे नियमों को मानते हुए कबीर पैदा हो पायेंगे ! कबीर तो पैदा ही तुम्हारे इन पाषाण नियमों को तोड़ते हुए हो सकते हैं !!
असली संक्रमण साहित्य जगत को ग्रसित किया है ! इससे निकलना जरूरी है ! यहाँ कबीर के पैदा होने की गुंजाइशे ना के बराबर है ! यहाँ सब महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं ! क्या आपको कबीर अच्छे नहीं लगते ? तो ठीक है आप बने रहिये महावीर प्रसाद द्विवेदी !!
पढ़ कर देर तक मुस्कुराता रहा ....
आपकी कही किसी बात से सहमत /असहमत होने की क्षमता मेरे पास नहीं है हाँ कुछ बात मैं समझ नहीं सका तो सोचता हूँ पूछ लूँ मैं आपका ध्यान आपके महत्वपूर्ण लेख के दो बिंदुओं के ओर आकर्षित करना चाहता हूँ
# मुझे किसी वरिष्ठ पर कोई विश्वास नहीं,हो सकता है वो अपनी आलोचनाओं से मेरी ठीक-ठाक रचना का कबाडा कर दे ! मुझे अपने से जूनियर और अपने समकालीन मित्र से अपनी सृजन पर समीक्षा लिखवाना अच्छा लगता है
## यहाँ कोई वरिष्ठ नहीं कोई कनिष्ठ नहीं !!
ये क्या चक्कर है महोदय .. आप अपनी सोच को कोई धरातल प्रदान करेंगे या यूँ ही हवाई फायर दागेंगे ???
## इन पंक्तियों से आपको असहमति हो तो बीमार ना होइए मौसम खराब चल रहा है ! आप अपना लिखिए और अगले को अपना लिखने दीजिए !
किसी से आलोचना सुन कर कान तो आप भी बंद कर सकते थे मगर आपने ये लेख लिखा है तो इससे ये तो स्पष्ट है कि आप मौसमी संक्रमण से पीड़ित हो चुके हैं दवाई की दूकान तक आप आ ही चुके हैं सेवन जल्द शुरू कीजिये वर्ना ये संक्रमण रच्नात्मंता के लिए जानलेवा है .....
सादर
आपकी पोस्ट तो मेरे दिल की बात है भाई पूरी तरह सहमत हूँ आपसे ।
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