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सभी से सादर निवेदन है कि यह मेरी प्रथम कहानी है कृपया अपने विचा रखें .....

कभी-कभी लोकल सवारी गाड़ी में चलते हुए भी ऐसा महसुस होता है कि जैसे उसकी रफ़्तार जिंदगी से तेज हो गयी हो तो वहीँ कभी-कभार किसी सुपरफास्ट ट्रेन में भी आदमी ऐसे झेल जाता है कि मानो मंजिल ही दोगुने रफ़्तार से भाग रही हो और हम कहीं पीछे छूटते जा रहे  ! जनवरी के जाड़े की वो रात आज भी मै भुल नहीं पाया हूँ जब वो पहली और अंतिम बार मुझसे मिली थी ! वाकया लगभग डेढ़ साल पहले का है ,जब २२ जनवरी की उस रात को मै दिल्ली से मुग़लसराय जाने वाली सुपरफास्ट ट्रेन से मुगलसराय के लिए जा रहा था ! कड़ाके की उस ठंढ में यही कोई रात के ग्यारह बजे रहे होंगे लेकिन उस समय उस पुरे बोगी में पसरा सन्नाटा यह बताने के लिए काफी था कि लगभग सभी लोग सो चुके हैं  ! मै भी अपनी बर्थ पर कम्बल ओढ़े सोने की कोशिश कर रहा था पर ना जाने क्यूँ ऐसा लग रहा था मानो नींद का आँखों से कोई झगड़ा चल रहा हो ! मै कभी प्रेमचंद्र का सेवासदन पलट कर पढ़ने की कोशिश करता तो कभी सो जाने की एक्टिंग,पर इतना तो तय है कि मै सो नहीं पा रहा था ! नींद आखों से काफूर थी और ठंढ हड्डियों को तोडने वाली, जैसे-जैसे रात की उम्र बढ़ रही थी मेरा कम्बल ठंढ के आगे जवाब दिये जा रहा था ! रात कैसे कटेगी और कम्बल कितना मददगार होगा ? ये सवाल अलग  परेशान किये जा रहे थे ! ठण्ड के किकुरन और कम्बल के तापमान के बीच चल रहे होड़-तोड़ से मेरी नींद पूरी तरह उचट चुकी थी और अब मै भी यह मान चुका था कि मेरा सो पाना नामुमकिन है ! अब तो यही तय किया कि सेवासदन आज ही रात खतम करना है ,शायद मेरे पास इससे बेहतर कोई  और चारा भी नहीं था ! उस समय आप मुझे एक लाचार पाठक कह सकते थे ! ट्रेन किसी गुमनाम स्टेशन पर आकर ठहरी जहाँ हलचल के नाम पर रेलगाड़ियों की ज्यादा पों-पाँ तो नहीं थी लेकिन  आप सन्नाटे की भयावह सनसनाहट  आसानी से खिडकी के सहारे सुन सकते थे ! मै किताब खोला ही था कि उसने धड़ाम से अपना भारी सा बैग मेरे बर्थ पर पटक दिया ! रात के भयावह सन्नाटे में उस स्टेशन पर ट्रेन में चढ़ी उस सवारी के रवैये ने तो मुझे एक मिनट के लिए बुत बना दिया ! इससे पहले कि मै उससे कुछ कहता वो खुद ही उखड़े हुए मन से कुछ बुदबुदाने लगी ! काफी नाखुश दिख रही थी,पता नहीं किससे नाराज थी? कोई और तो वहाँ उसके साथ था भी नहीं ! खैर, कबतक बुत बना रहता मै बोल पड़ा –

जी,शायद आप गलत बर्थ पर आ गयीं है ?

उसने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन उसका मौन इतना खामोश भी नहीं था कि मै कुछ समझ ना पाऊं ! मैने उसे थोड़ा समय देने की सोचा क्योंकि खामोश पड़े उस बोगी में किसी को कोई हडबडी नहीं थी,मुझे भी नहीं, तिसपर मै बोर ही रहा था !खैर, कुछ देर मैंने चुप रहने की ठानी लेकिन मेरी आँखे अभी भी चोरी से उसके ही हाव भाव् को समझने की कोशिश कर रहीं थी ! जितना उस समय मै उसको समझ पाया उसके हिसाब से वो कोई चौबीस या पचीस साल की लडकी थी जिसे अत्यधिक सुंदर नहीं तो बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था ! वो मेरी तरफ नहीं देख रही थी और ना ही अपने उस बड़े बैग की तरफ ही, जिसे बड़ी बेतरतीबी से उसने मेरे बर्थ पर पटका था ! उसके होंठ अभी भी कुछ बुदबुदा रहे थे जिसे शायद वही समझ पा रही हो ! पहली दफा तो मुझे उसका यह बुदबुदाना ठण्ड की कंपकपाहट लगी, मानो उसके होंठ ठण्ड से काँप रहे हों ! लेकिन मानव स्वभाव के अनुकूल मुझे अपने बर्थ की चिंता अभी भी बनी हुई थी ! कुछ ही मिनटों बाद मेरा बर्थ प्रेम उमड़ आया और मै दोबारा पूछ पड़ा---

“जी, लग रहा है आप गलत बर्थ पर आ गयीं हैं क्योंकि ये मेरा बर्थ है !” यह कहते हुए मैंने अपना टिकट भी निकाल कर हाथ में ले लिया था, मानो अगर साबित ही करना पड़ा तो बिना देर किये खुद को उस बर्थ का एकक्षत्र मालिक साबित कर दूँ !

इस बार उसने भी चुप्पी तोड़ी और बड़े बेपरवाह लहजे में बिना मेरे तरफ देखे बोली – “मै कब कह रही हूँ कि ये मेरा बर्थ है ? आपका ही है निश्चिंत रहें !

उसका इस तरह जवाब देना  मुझे बिलकुल नहीं भाया, लेकिन अपने संकोची स्वभाव के कारण मै उसे उठने के लिए कह पाने में पूरी तरह असमर्थ महसुस कर रहा था !

खैर, अब मैंने यह मान लिया कि अब बर्थ की बात नहीं करूँगा और अगर खुद उठकर नहीं गयी तो उठने के लिए भी नहीं कहूँगा ! मेरा ऐसा मानना दो वजहों से था पहली वजह, कि मुझे भी नींद नहीं आ रही थी और दूसरी वजह, मेरा संकोची स्वभाव ! यह सब होटे-होते में लगभग बारह बजने को थे ! रात भर बैठ कर यात्रा करने का फैसला मन ही मन मेरे द्वारा लिया जा चुका था ! दो लोग एक साथ बैठे हो तो खामोशी और डरावनी होती है इसलिए मैंने अब अपनी तरफ से कुछ औपचारिक बात-चीत करने का मन बनाया,वो तो अब भी अपनी बुदबुदाहट की भाषा में खुद से बतियाए जा रही थी !

मैंने कहा- कहाँ तक जाना है आपको ? “मुझे तो मुगलसराय तक जाना है” ! पूछने के साथ-साथ मैंने अपनी यात्रा को भी बताना उचित समझा !

उसने कहा, “मुझे पता नहीं है कि ये ट्रेन कहाँ तक जायेगी”

“मै कुछ समझा नहीं,बिना गंतव्य के कैसी यात्रा ?”

“मै समझा नहीं सकती और वैसे भी आपको क्या समझ में आएगा,लेकिन अपना बर्थ शेयर करने के लिए शुक्रिया ! आपको अगर सोना हो तो बता दीजिएगा, मै कुछ और देखूंगी”

“नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं,मुझे भी नींद कहाँ आ रही ? खाली निठल्ला बोर हो रहा था, अच्छा हुआ आप आ गयीं”

“जी धन्यवाद”

इतने संवाद के बाद वो फिर चुप हो गयी मगर मेरी जिज्ञासा उससे बात करने की बढ़ती जा रही थी क्योंकि पिछला अल्पसंवाद उसके बारे में और जानने की जिज्ञासा पैदा कर रहा था ! मै दुबारा बात करने की कोशिश किया !

मैंने संकोच के साथ पूछा, “इतनी रात, अकेले,कहाँ जाना है पता नहीं, आखिर क्या बात है ?”

उसने ऐसे घूर कर देखा जैसे मैंने कोई अपराध किया हो लेकिन थोड़ी ही देर में अपनी भाव भंगिमा बदलते हुए एक रहस्मयी उत्तर दिया –

“भाग रहीं हूँ घर से अपने” बस इतन कहा उसने-

यह जवाब मुझे एक पल के लिए असहज करने वाला था, क्योंकि जितनी बेबाकी से उसने यह जवाब दिया उतनी ही असहजता से मै इसे स्वीकार कर पाया था ! मैंने ठान लिया कि अब तो पूछूँगा ही कि वो क्यों ऐसा कर रही है ?

मैंने तुरंत पूछा –ऐसा क्या हुआ जो घर से भाग रही हो ,कहाँ जाओगी ? 

उसने कहा, “यूँ ही , कहीं भी ?

“सुसाइड करोगी ? इसलिए भाग रही हो ?

मेरे इस सवाल ने उसके चेहरे का भाव ही बदल दिया ! वो जोर से हँसने लगी, मानो मैंने कोई मजाक कर दिया हो ! वैसे हँसते हुए मैंने उसे पहली बार देखा उस डेढ़ घंटे में, हँसते हुए वो वाकई खूबसूरत लग रही थी ! उसने हँसी रोककर....हालाकि रोक नहीं पा रही थी, जवाब दिया !

“मै उन लडकियों में से नहीं जो सुसाइड कर लें ! मुझे जीना है अपनी पूरी जिंदगी, अपने तरीके से और ये मेरा अधिकार है ! मै मरने नहीं जीने के लिए निकली हूँ”

मेरे जैसे सामान्य दिनचर्या को जीने वाले सामान्य आदमी के लिए उसकी बातें बड़ी असामान्य लग रहीं  थीं ! मै समझ नहीं पा रहा था कि घर-परिवार से निकल कर कोई कैसे जी सकता है ? क्योंकि मेरे लिए तो घर-परिवार ही जीवन था !

मैंने मामले को थोड़ा और कुरेदा और पूछ पड़ा –

“घर में कौन कौन हैं ?”

“माँ, पापा,बड़ा भाई और एक छोटी बहन” उसने कहा-

“ये तुमसे प्यार नहीं करते क्या ?”

“बहुत करते हैं,इतना जितना आप सोच नहीं सकते”

“फिर................?”

“मै भी उनसे बहुत प्यार करती हूँ मगर खुद से भी उतना ही प्यार करती हूँ ! वो आपस में प्यार करें और मै खुद को अकेले अपने आप से प्यार करना चाहती हूँ”

“क्या ऐसा कर पाओगी जब अकेले उनके बिना रहोगी ? ”

“क्यों नहीं , आज खुद को प्यार करुँगी तो कल सब ठीक हो जायेगा ! अगर आज मै उनको अपनी इच्छाएं बताई तो शायद वो नहीं समझ पाएंगे ! इसलिए उनसे बिना बताये भाग रही हूँ “

रात भर यूँ ही बात चलती रही ! कुछ मैंने अपना कहा और कुछ उसका सुना ! उसकी बातें मुझे आकर्षित कर रहीं थी, मानो वो कोई प्रवचन की प्रख्यात पंडित हो और मै मंत्रमुग्ध श्रोता मात्र ! उसकी बातें मुझ पर प्रभाव छोड़ चुकीं थीं और उसको लेकर मेरे मन में ना जाने कितने भाव और विशेषण उत्पन्न हो चुके थे ! मेरे सीमित मन ने उसे आत्मनिर्भरता,स्वतंत्रता,निडरता,और स्त्री शक्ति के प्रतीक रूपी विशेषणों से मन ही मन नवाजना शुरू कर दिया था ! उस लडकी से मै इतना प्रभावित हुआ कि इस भेंट को मैं अपना सौभाग्य समझ कर देखने लगा ! बात-चीत में कब रात गयी और ट्रेन मुगलसराय पहुची, पता ही नहीं चला ! अब विदा लेने का वक्त था लेकिन उसको लेकर कोई चिंता नहीं  क्योंकि उसकी बातों से मुझे इतना विश्वास हो चुका था  कि वो जहाँ भी जायेगी मेरी तरह सबको अपने कौशल से प्रभावित कर देगी ! ट्रेन से उतरने के लिए सामान उठाते हुए मैंने कहा –

“अच्छा लगा आपसे मिलकर, अब विदा लेने का वक्त है ! आज ही रात की ट्रेन से मुझे दिल्ली लौटना है अत: थोड़ी जल्दी में हूँ ! आपकी आगे की यात्रा मंगलमय हो !”

उसने भी समान औपचारिकताएं पूरी की और मै ट्रेन से उतरकर बाहर आया ! बाहर आकर चाय की तलब थी तो एक चाय के स्टाल पर खड़ा हुआ ! तभी अचानक वो पीछे से दौडती और हाँफते हुए आई ! हांफते हुए स्वरों में उसने कहा –

“ओह...हह ..अच्..अच्छा है कि आप अभी यहीं हैं .....आपने बताया कि आज आप दिल्ली वापस जायेंगे ?”

मैंने कहा, “हाँ जाना तो है, मगर क्यों, कोई काम ?”

“जी, दरअसल गलती से मेरे भाई के नई नौकरी का अप्वाइंटमेंट लेटर मेरे बैग में आ गया है ,क्या आप इसे दिल्ली के उसके इस पते तक पहुंचा देंगे ?”

पहली बार उसकी आँखों में मैंने याचना के भाव देखा और मै मना नहीं कर सका, और बोल पड़ा –

“अरे क्यों नहीं, जरूर ! आप पता और लेटर दे दीजिए”

उसने कागज का लिफाफा दिया और फिर धन्यवाद बोलकर वापस चली गयी ! मै भी अपना काम निपटा कर दिल्ली वापस आ गया था ! हालाकि इस पुरे मुलाकात का सबसे रोचक पहलू यह भी रहा कि ना तो मैंने उसका नाम  पूछा और ना ही उसने मेरा ! इसका एहसास मुझे दिल्ली आकर हुआ !

लेटर पहुंचाना बड़ी चुनौती थी लेकिन हर हाल में पहचाना अनिवार्य भी था ! भारत जैसे सामाजिक परिवेश में घर से बिना बताये भागी हुई लडकी का दिया पत्र उसके घर वालों को देना वाकई बहुत मुश्किल काम था ! उसके घर का पता देखा और दूसरे दिन ही मै दिल्ली के भजनपुरा स्थित उस पते की तरफ चल पड़ा ! उस अनजान लडकी को लेकर अभी भी मै बहुत गर्वान्वित था और इस हद तक तैयार भी था कि अगर उसके घर वाले उसके बारे में कुछ गलत कहेंगे तो मै उन्हें समझा लूँगा ! आलम तो ये था कि मैंने मन ही मन स्त्री स्वतंत्रता और स्वतंत्र जीवन जीने की आत्मनिर्भरता पर एक भाषण भी तैयार कर लिया था !

मेट्रो का जमाना है कि पता जल्दी ही मिल गया ! उस लड़की द्वारा दिये गए पते  पर जब मै पहुंचा तो जो मकान मिला वह एक औसत दर्जे का मकान लग रहा था जिसमे कोई मध्यमवर्गीय परिवार ही रह सकता था ! डोरबेल खराब थी अत: दरवाजा खटखटाना पड़ा ! अन्दर से एक उसी लडकी के शक्ल से मिलती जुलती शक्ल की लगभग अट्ठारह साल की लडकी निकली !

उसने दरवाजा खोलते ही पूछा, “जी ..?”

मैंने हकलाते हुए कहा , “अप्वाइंटमेंट ले..ले ..ट .. लेटर....शायद आपके भाई का है”

“किसने दिया आपको ?”

“शायद आपकी बह....न...बहन होंगी वो ..उन्होंने दिया ट्रेन ...” बोलते बोलते मै पूरी तरह नर्वस हो चुका था, जाने क्यूँ ?

इतने में एक अधेंड उम्र पुरुष और उसी उम्र की औरत,जो शायद उस लड़की के माता-पिता थे  और उसका भाई , दरवाजे पर अजीब सा भाव बनाये आ चुके थे ! ऐसा लग रहा था कि उन सभी की चुप्पी मुझपर सवाल पर सवाल दाग रहीं हों ! उनके शक्ल पर आश्चर्य,डर ,लज्जा,शर्म सभी तरह के भाव साफ़-साफ़  झलक रहे थे, जिन्हें पढ़ पाना बड़ा आसान काम था किसी के लिए ! उनमे से किसी एक ने कहा अंदर आ जाइये ! मै जैसे ही अंदर गया ,उनमे से एक ने दरवाजा बंद कर लिया ! वो पता नहीं क्यों डरे हुए से लग रहे थे और उनका डर अब मुझे भी डराने लगा था ! वो पता नहीं किससे डर रहे थे ? मेरे अलावा तो वहाँ कोई था भी नहीं ...पता नहीं किससे ?..मैंने बिना कुछ और बोले वो लेटर बढ़ाया उस लडकी के पिता की तरफ ......बिना लेटर लिए ही उस आदमी ने घबराते हुए कहा -

आपने किसी से कुछ बताया तो नहीं...? प्लीज किसी को मत बताना ..प्लीज .......एक साथ सारा परिवार प्लीज ..प्लीज बोल रहा था लेकिन इस बात का खास ख्याल सभी रख रहे थे कि आवाज बाहर नहीं जाए ! एक मिनट के अन्दर उस आदमी और औरत के आँखों में आंसू और चेहरे पर याचना के भाव उभर कर आ चुके थे ! मै बिलकुल उनके इस घबराहट और डर को समझ नहीं पा रहा था कि आखिर वो इस कदर मुझ जैसे अनजान आदमी से क्यों घबरा रहे हैं ?

मुश्किल से पाँच मिनट भी नहीं हुआ था मुझे उस घर में दाखिल हुए लेकिन उस पाँच मिनट में घर का सारा माहौल डर,घबराहट,लज्जा के बोझ तले धंसा जा रहा था ! डर का आलम ये कि मेरे बिना कुछ पूछे ही सब अपनी-अपनी बोले जा रहे थे और उन चार रोने वाले चेहरों में कोई अपनी बहन के खातिर रो रहा था तो कोई अपनी बेटी की खातिर ! रोने की चीखें इतनी की अगर ध्वनि बन कर बाहर निकले तो आसमान का जिगर चीर दें, मगर उन चीखों को बाहर ना निकाल पाने की अजीब मजबूरी मैंने उस बंद चारदीवारी में देखी ! आखिर ये कैसी सामाजिक मजबूरी जो ना उन्हें खुलकर रोने देती और ना ही कुछ बोलने ही देती ? मेरे मन में यह सवाल बार-बार ज्वार बनकर उठ रहा था कि “आखिर ये लोग उस लडकी के लिए इतना क्यों रो रहे थे ? क्योंकि ऐसा कोई भाव मैंने उस ट्रेन वाली लडकी के चेहरे पर नहीं देखा था उन कुछ घंटो में ? मेरे लिए सब असहनीय था और मेरा वहाँ रुकना भारी पड़ रहा था ! मैंने बिना किसी को कोई ढाढस बढाए वो लेटर उस लड़के की तरफ फिर बढ़ाया लेकिन उस लड़के ने उस लेटर को लेने से मना कर दिया ! उसने सिर्फ इतना कहा कि “अब ये हमारे किसी काम का नहीं,जिसने इसे आपको दिया अगर दुबारा मिले तो उसे ही दे दीजियेगा” !

लौटते समय मैंने उस पुरे परिवार के आँखों में एक अजीब याचना का भाव देखा जो मुझसे कह रहे थे कि मै इसका जिक्र किसी से ना करूँ ! उस ट्रेन वाली लडकी के लिए मेरे मन में बने सारे भाव धुल धसरित हो चुके थे और मै उस परिवार के आगे निरुत्तर हो चुका था ! आज भी वो लेटर मेरे पास है और मै आज भी खोज रहा हूँ उस ट्रेन वाली लड़की को, अगर वो मिलेगी तो उसे लेटर देकर यह जरूर बोलूँगा कि तुम्हारे जीने की आजादी इतनी भी नहीं है कि तुम दूसरों को चाहरदीवारी में मार डालो ! तुम्हारी इच्छाएं इतनी बड़ी भी नहीं कि तुम सबकी इच्छाओं का गला घोंट दो ! सच कहूँ तो आज डेढ़ साल बाद भी ट्रेन के उस दस घंटे पर उस परिवार की चारदीवारी में बंद दस मिनट भारी पड़ रहा है !!   

 

 शिवानन्द  द्विवेदी "सहर"

 

 

 

 

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Comment by Saurabh Pandey on November 21, 2012 at 1:13pm

कहानी अच्छी लगी, शिवानन्दजी. आखिरी कुछ पंक्तियाँ आत्म-कथ्य सही, बहुत कुछ कहती हैं.

साधुवाद

Comment by shalini kaushik on November 21, 2012 at 2:06am

लगता ही नही शिवानन्द जी की ये आपकी पहली कहानी है भावों कोबहुत ही खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है आपने.एक झटके में ही मैं इसे पूरी पढ़ गयी और वास्तव में कहूं तो आँखें दुःख से छलछला गयी..शानदार अभिव्यक्ति बधाई

Comment by शिवानन्द द्विवेदी सहर on November 20, 2012 at 6:26pm

आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद !!

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on November 20, 2012 at 4:13pm

शिवानन्द जी कहाँ से शुरुआत करूँ और कहाँ से अंत कुछ समझ नहीं आ रहा है.....बहुत कम ऐसा होता है की मैं कोई लंबी कहानी पूरा पढ़ता हूँ लेकिन आपका लिखने का अंदाज़ ऐसा था की एक सांस में ही पहले से लेकर अंतिम शब्द तक सब पढ़ गया। कहानी तो सामान्य ही है लेकिन आपके अंदर के रचनाकार और शिल्पी ने इसे बेहद महत्त्वपूर्ण बना दिया। आपने अपनी लेखन कला का नायाब नमूना तो पेश ही किया है साथ ही साथ संवेदनाओं और भावनाओं से भी खूब खेला है....बहुत सुंदर प्रस्तुति । लाख लाख बधाइयाँ!!,

सूरज 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 20, 2012 at 4:03pm

mujhe achhi lagi, badhai.

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