बह्र : मुफाईलुन मुफाईलुन फऊलुन
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न ऐसे देख बेचारा नहीं हूँ
थका तो हूँ मगर हारा नहीं हूँ
है मुझमें रौशनी, गर्मी नहीं पर
मैं इक जुगनू हूँ अंगारा नहीं हूँ
यकीनन संगदिल भी काट दूँगा
तो क्या जो बूँद हूँ धारा नहीं हूँ
सभी को साथ लेकर क्यूँ मिटूँगा?
मैं शबनम हूँ कोई तारा नहीं हूँ
हवा भरना तुम्हारा बेअसर है
मैं इक रोटी हूँ गुब्बारा नहीं हूँ
मेरी हर बात को अंतिम न मानो
मैं पूरा हूँ मगर सारा नहीं हूँ
कभी मैं रह न पाऊँगा महल में
मैं इक झरना हूँ फव्वारा नहीं हूँ
कभी मुझमें उतरकर देख लेना
समंदर हूँ मगर खारा नहीं हूँ
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
जितनी तारीफ़ करें, कम है ! लाजवाब गज़ल आदरणीय धर्मेन्द्र जी ! ढेरों दाद कबूलें...!
ग़ज़ल में ऊपर से नीचे तक उतरकर देखा ..वाकई समन्दर है ..और खारा भी नहीं ..किसी एक शेर को बिशेष रूप से इंगित करना दुष्कर होगा मुझ जैसे नौसिखिये के लिए...ऐसी चंद ग़ज़लें जो समय समय पर अवतरित होती रहती हैं नया चिंतन देती हैं ..शिल्प की जादूगरी तो आपकी ग़ज़लों में होती ही है ..ढेरो बधाई के साथ ..सादर
हवा भरना तुम्हारा बेअसर है
मैं इक रोटी हूँ गुब्बारा नहीं हूँ
मेरी हर बात को अंतिम न मानो
मैं पूरा हूँ मगर सारा नहीं हूँ
कभी मैं रह न पाऊँगा महल में
मैं इक झरना हूँ फव्वारा नहीं हूँ
कभी मुझमें उतरकर देख लेना
समंदर हूँ मगर खारा नहीं हूँ
आख़री के चार शेर पर तो भाई जिंदाबाद जिंदाबाद ... जश्न होना चाहिए ऐसे ग़ज़लों के हो जाने पर
बेहतरीन-बेहतरीन-बेहतरीन.. मतले से लेकर आखिरी शे'र तक हरेक शे'र एकदम मंझा हुआ. वैसे तो किसी भी एक शे'र को 'हासिल-ए-ग़ज़ल शे'र' कहना मुश्किल है, पर मतला और इन दो मिसरों ने ख़ासा ध्यान खींचा. बधाई स्वीकारें भाई जी.
/मैं पूरा हूँ, मगर सारा नहीं हूँ/
/मैं इक जुगनू हूँ, अंगारा नहीं हूँ/
मेरी हर बात को अंतिम न मानो
मैं पूरा हूँ मगर सारा नहीं हूँ...........बहुत जानदार शेर
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये
अहा !!!! वाह आदरणीय भाई जी वाह आनंद आ गया मन खुश कर दिया आपने ऐसी सुन्दर पेशकश से, सभी के सभी अशआर दिल को छू गए दिल से ढेरों दाद कुबूल फरमाएं.
बहुत बहुत धन्यवाद Shijju S. जी
बहुत बहुत धन्यवाद राज़ नवादवी जी
तह-ए-दिल से आभारी हूँ giriraj bhandari जी
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