बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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न गाँधी से न मोदी से न खाकी से न खादी से
वतन की भूख मिटती है तो होरी की किसानी से
ये फल दागी हैं मैं बोला तो फलवाले का उत्तर था
मियाँ इस देश में सरकार तक चलती है दागी से
ख़ुदा के नाम पर जो जान देगा स्वर्ग जायेगा
ये सुनकर मार दो जल्दी कहा सबने शिकारी से
ये रेखा है गरीबी की जहाजों से नहीं दिखती
जमीं पर देख लोगे पूछकर अंधे भिखारी से
चुने जिसको, सहे उसके सितम चुपचाप ये ‘सज्जन’
जमाने तंग आया मैं तेरी आशिक मिजाजी से
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय Saurabh जी आप जो भी कहते हैं नाप तौल कर कहते हैं। असहमत होने का मौका ही नहीं देते। स्नेह बनाये रखें।
बहुत बहुत शुक्रिया बागी जी, स्नेह बनाये रखें।
इस प्रस्तुति पर कुछ कहने के पूर्व एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि बहुत लोगों के सीखने का अंदाज़ तक लट्ठमार होता है. हाँ, इस दौरान कुछ अच्छी बातें भी होती रहती हैं और शिष्ट संतुलन बना रहता है.
शुभम्.. .
आदरणीय धर्मेन्द्र भाईजी की ग़ज़ल कई बार शाब्दिक हुई दिखती है. मुँह खोल कर बोलती है. आजकल संभवतः यही दौर है.
ग़ज़लों को इनकी आँखों से बोलने दें, आदरणीय. यही हम सब समवेत प्रयास करें. ग़ज़ल शिल्प के पगहे में आ चुकी है अब इसे भाषा-व्यवहार सिखाया जाये. है न ?
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद Shijju S. जी
आदरणीय धर्मेंद्र जी बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने वाह दाद कुबूल करें
बहुत बहुत आभार, आदरणीय गणेश भईया ! बस आप सबके साथ से सीखे के कोशिश क रहल बानी ! स्नेह हरदम रहो !
सुझाव के समर्थन हेतु बहुत बहुत आभार, वीनस भाई जी !
धर्मेन्द्र भाई, शानदार ग़ज़ल कही है, सभी शेर सामयिक हैं, कहन और वजन में बढ़िया सामंजस्य बैठाया है, भाई पियूष ने बिलकुल उस्तादाना सलाह दे डाली है, "गाँधी" लिखने से ये आज के गाँधियों का ध्यान तो तनिक भी नहीं आता । बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर ।
मैं पियूष को बहुत बहुत धन्यवाद देना चाहूँगा जो इस उस्तादी से बात को पकड़ा है, भाई तोहरा में बदलाव लउकत बा :-)
पियुष द्विवेदी 'भारत' जी ने शानदार सुझाव प्रस्तुत किया है ...
आपने मेरी बात को मान दिया, बहुत बहुत आभार !
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