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सरेआम लें लूट, गिरी माँझा बिन गुड्डी--रविकर

मौलिक / अप्रकाशित

गुड्डी-गुड़ी गुमान में, ऊँची भरे उड़ान |
पेंच लड़ाने लग पड़ी, दुष्फल से अन्जान |


दुष्फल से अन्जान, जान जोखिम में डाली |
आये झँझावात, काट दे माँझा-माली |


लग्गी लेकर दौड़, लगाने लगे उजड्डी |
सरेआम लें लूट, गिरी माँझा बिन गुड्डी ||

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Comment

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Comment by रविकर on August 26, 2013 at 4:48pm

 आभार आदरणीय गिरिराज जी / ब्रजेश जी / अरुण जी -
आभार आदरणीय-
सौरभ जी
उड़े पतंगा दे जला, चाहे खुद मर जाय |
हरदम गुड्डी को खला, जब तब रहा सताय |
जब तब रहा सताय, सुकोमल गुड्डी मरती |
फिर पब्लिक चिल्लाय, बड़ा-आन्दोलन करती  |
पर कानूनी लोच,  लगा अब तलक अडंगा |
पुन: लगा के खोंच, जला के उड़े पतंगा |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2013 at 3:15pm

गुड्डी का इंगित सुगढ़, रविकर दें सन्देश

अजब-गजब यह उम्र है, अजब-गज़ब परिवेश

अजब-गजब परिवेश, हुलसती मन ही मन में

आफ़त से अनजान, ढील पा उड़े गगन में

सही कहा हे तात, शिष्टता हुई उजड्डी

शुभ-शुभ लेखन वाह, खूब है इंगित गुड्डी

सादर

Comment by बृजेश नीरज on August 19, 2013 at 12:28pm

बहुत ही सुन्दर आदरणीय! आपको नमन!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 18, 2013 at 9:24pm

रविकर भाई , सुन्दर कुण्डलिया की रचना की , बधाई !!

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 18, 2013 at 4:58pm

आदरणीय रविकर सर वाह आपकी कुण्डलिया में प्रयुक्त शब्द बहुत कुछ सिखा जाते हैं हार्दिक बधाई इस सुन्दर कुण्डलिया छंद हेतु.

कृपया ध्यान दे...

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