(आज से करीब ३२ साल पहले)
लगता है मुझे कोई बीमारी हो गई है. परसों पिताजी डॉक्टर के पास ले गए थे. नाक से बार बार खून आने लगा है. मां ने कहा है कि कुछ दिन मुझे नियमित रूप से दवा खानी होगी.
कल रात दवा खाई थी. नींद आ रही थी मगर आँख नहीं लग रही थी. देर रात बिस्तर पे करवटें बदलता रहा और सोचता रहा कि कब स्वस्थ होऊंगा. सुबह पौने छः बजे आँख खुली. ज़बरन बिस्तर से उठा, एक मदहोशी सी छाई थी. अकस्मात गुड्डी दादी के साथ हुई दुर्घटना ने सारे आलस्य को काफूर कर दिया. वो घर की निचली मंजिल के मेरे कमरे में मेरे साथ सोती हैं क्योंकि मुझे अकेले सोने में डर लगता है और पढ़ाई के लिए मेरा अकेले रहना ज़रूरी है. आज सुबह टॉयलेट जाते वक़्त वो सीढ़ियों से गिर गईं और संभव है कि उनके पैर की कोई हड्डी टूट गई है. वो दर्द से कराह रही थीं.
गुड्डी दादी मेरी असली दादी नहीं हैं. वो पड़ोस के एक ग़रीब मुसलमान परिवार की वृद्धा हैं जो मेरी अपनी दादी की घरेलु काम करने वाली नौकरानी थीं. मेरी दादी के मरने के बाद भी उनका हमसे स्नेह बना रहा, खासकर मुझसे, और वो हमारे घर आया जाया करती रहीं.
दस-ग्यारह बजते बजते गुड्डी दादी के पाँव पे प्लास्टर चढ़ चुका था और उन्हें बिस्तर पे लिटा दिया गया. मेरा सर भी तब तक दसों दिशाओं के चक्कर काटने लगा था जबकि मन स्थिर रहना चाहता था. परिणाम स्वरुप मेरा सर अकेला ही घूमने लगा. नाश्ते में देर हो गई थी मगर फिर भी खाया नहीं गया. मुश्किल से रोटियाँ अन्दर ठूंस ली मैंने. उलटी आते आते बची. रात तक मेरा सिर निरंतर घूमता ही रहा. शायद घूमते घूमते अनंत में विलीन हो जाना चाहता हो.
आज रात मैंने दवा नहीं ली.
© राज़ नवादवी
शुक्रवार ०३/०४/१९८१
नवादा, बिहार
‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’
Comment
आदरणीया मंजरी पाण्डेय जी, आपके विचारों एवं उत्साहवर्धन का हार्दिक आभार.
डायरी का अब चलन जो खतम हो रहा है तब आपकी डायरी सामने आई कई लोगों को तो अभी इसका स्वाद पता लगा होगा
. बहुत बहुत बधाई.आदरणीय राज़ नवादवी जी
आदरणीय जुनेजा साहेब, आपके सुझावों एवं मंतव्य का हार्दिक स्वागत है. मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन के लिए आपका ह्रदय से आभारी हूँ. इस क्रम की डायरी के ज़्यादातर प्रसंग १६-२२ वर्ष की उम्र में लिखे गए तब विधाज्ञान का कुछ बोध भी नहीं था.
आदरणीय आशुतोष जी, पढ़ने और आपके मंतव्य का हार्दिक स्वागत है. साभार!
एक सन्देश तो डेरी के इस पन्ने में है ...जो दिलकश है ..स्नेह की कीमत तो चुकाए नहीं जा सकती किन्तु किंचित ऋण अरय्गी तो की ही जा सकती है ..सादर
प्रिय नीरज मिश्राजी, १६-१७ वर्ष की वय से युवावस्था के इक पड़ाव तक लिखी आत्मनंदिनि (डायरी) प्रस्तुत करने का प्रयास करता रहूंगा. शायद कहीं या कभी आपको आपके 'और फिर..' का जवाब मिल जाए. धन्यवाद एवं शुभकामनाओं के साथ.
और फिर .............
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