(आज से करीब ३२ साल पहले)
शनिवार ०४/०४/१९८१; नवादा, बिहार
-----------------------------------------
आज भी दवा मुझपे हावी रही. स्कूल से घर आने के बाद कुछ पढ़ाई की. परन्तु जैसे किसी बाहरी नियंत्रण में आकर मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी. ऊपर गया और मां से खाना माँगा. मगर ठीक से खाया भी नहीं गया. एक घंटे के बाद चाय के एक प्याले के साथ मैं वापिस नीचे अपने कमरे आया. कलम कापी उठाई और लिखने बैठ गया. मन कुछ हल्का हुआ.
मैंने ऐसा महसूस किया कि दवा का प्रभाव खाने के तीसरे दिन के तीसरे प्रहर तक बना रहता है क्योंकि शाम के बाद से मैं औषधि-प्रभावित मनःस्थिति से जैसे बाहर निकलने लगा था हालांकि आज फिर से दवा खाने की कल्पना से मैं मन ही मन डरने भी लगा था.
आज शाम को डॉक्टर गुड्डी दादी को देखने आने वाले हैं. वो अभी कुछ दिन हमारे घर पे ही रहेंगी. मुझे ये सोच कर थोड़ी खुशी भी हुई मगर उनका थका और बीमार चेहरा देखकर मैं फिर से उदास हो गया. दादी ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया और बैठने को कहा. उनसे मेरे हाल का कुछ भी नहीं छुपा था. उन्होंने जबरन अपने चेहरे पे मुस्कान की कुछ लकीरों को लाते हुए और मेरे सर पे हाथ फेरते हुए कहा- “घबराओ मत, मैं जल्दी ही ठीक हो जाउंगी”.
© राज़ नवादवी
‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’
शनिवार ३०/०५/१९८१; नवादा, बिहार
-----------------------------------------
गुड्डी दादी नहीं रहीं. यह खबर मेरे लिए किसी विद्युत्-सन्निपात से कम नहीं थी. हठात ये विश्वास ही नहीं हुआ कि छोटे कद, अंडाकार चेहरे, नुकीली नाक और दो छोटी छोटी आँखों और झुकी कमर वाली दादी अब हमारे बीच नहीं हैं.
कुछ दिन पहले ही उनका प्लास्टर उतारा गया था जिसके बाद वो हमारे घर से पड़ोस के ही मुसलमान बस्ती में स्थित अपने घर अपने बेटे और बहुओं के साथ रहने चली गई थीं. जब तक वो हमारे साथ थीं, उनके खाने-पीने, शौच और आराम के लिए मुस्तैद दल में मैं भी शामिल था. मेरे अलावा हमारे घर की धाई, जिन्हें हम ‘बिलाय फुआ’ कहते थे, और उनका बेटा विजय भी इस दल में शामिल था. उन्हें बिस्तर से शौचालय ले जाने और लाने में २-३ लोगों की ज़रुरत तो पड़ती ही थी. बिस्तर से शौचालय तक और शौचालय से वापसी के सफ़र में मैंने उन्हें कितनी ही बार दर्द से बुरी तरह कराहते देखा था. उन क्षणों में मैं एक प्रकार के अपराध भाव से भी पीड़ित हो जाता था कि यह सब कुछ मेरे कारण ही हुआ- न दादी को मेरे अकेलेपन से भय लगने के कारण मेरे कमरे में सोना पड़ता और न ही उनके गिरने की नौबत आती.
उनका बड़ा बेटा जो घर का मुखिया है, और जिसकी उम्र करीब ४५-५० की है, हाथ से बीड़ी बनाकर बेचने का एक छोटा कारोबार करता है जिसपे सारा कुनबा निर्भर है; उनकी मार्केट में बीड़ी-सिगरेट बेचने की एक छोटी दुकान भी है जहां कई अन्य छोटी मोटी चीज़ें भी मिला करती हैं. हमने बचपन में न जाने कितनी बार उस दूकान से च्युंगम, पाचक, टाफी, लेमनचूस, इत्यादि जैसे चीज़ें खरीदी होंगी. सामने बांस से बनी सूप पे रखी तम्बाकू को हाथों से बीड़ी के पत्तों में लपेटते और धागे से बांधते हुए भी वो हमें प्यार और विनम्रता भरी एक नज़र से देखने से नहीं चूकते. वो अक्सरहा हमारी अपनी दादी को याद करते और कहते कि वो बहुत नेक थीं और उनके बहुत एहसान हैं हमपे.
हम आखरी बार गुड्डी दादी को देखने उनके घर गए. एक भीड़ सी जमा थी वहाँ. दादी तो दिखी नहीं. हाँ, बिलकुल नए एवं सुफेद कपड़े के एक खोल में किसी पार्सल की तरह पैक की हुई बांस के जनाज़े पे गठरी सी कोई चीज़ लिटा के रखी थी जिसे धागे से अच्छी तरह सिल के पूरी तरह से बंद कर दिया गया था. हमें बताया गया कि यही गुड्डी दादी हैं. हमें पहुँचने में देर हो चुकी थी और अब जो हमें देखने को मिला था उसे हठात आत्मसात कर पाना बहुत मुश्किल था. चलता फिरता आदमी कैसे मफ्लूज़ होकर एक बेजान सी मूरत में तबदील हो जाता है!
घर वापिस आकर मैं सबसे पहले अपने कमरे में गया और आँखे बंद कर कुर्सी पर बैठ कर अपने आप में खो सा गया मानो बाहरी दुनिया में तेज़ी से बदल रहे घटनाक्रमों को भुला देना चाहता हूँ.
मुझे लगा जैसे गुड्डी दादी वहीं कहीं आसपास हैं और मुझसे कुछ कह रही हों-
‘अकेलेपन से क्यूँ डरते हो बेटा? हम जब अकेले होते हैं तो अल्लाह हमारे साथ होता है. हम अकेले ही आए हैं और अकेले ही जाएंगे. तुम्हें अभी एक लंबा सफ़र तय करना है. अपने अन्दर खालीपन पैदा करो ताकि तुम्हें अपनी वास्तविक ख़ुदी का इल्म हो सके. मेरी दुआएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं. आमीन’.
© राज़ नवादवी
‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’
Comment
भाई नीरज जी, मुझे अच्छा लगा कि आपको मेरी डायरी पड़कर अच्छा लगा. आपके उत्साहवर्धन का हार्दिक आभार!
राज साहब आपके उस दिन की डायरी का राज मेरे को आज समझ में आया है
आप लिखते रहिये मुझे इंतज़ार रहेगा मुझे सच्ची घटना पढने में मज़ा है
और आपने तो वैसे ही लिखी हैं जैसे घटी हैं पूरी प्राकृतिक ढंग से
बहुत अच्छा लग रहा है आपके संस्मरण पढ़ कर ।
शुभ कामनाएं .
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online