(आज से करीब ३२ साल पहले: भावनात्मक एवं वैचारिक ऊहापोह)
रात्रिकाल, शनिवार ३०/०५/१९८१; नवादा, बिहार
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मेरी ये धारणा दृढ़ होती जा रही है कि सत्य, परमात्मा, आनंद, शान्ति- सभी अनुभव की चीज़ें हैं. ये कहीं रखी नहीं हैं जिन्हें हम खोजने से पा लेंगे. ये इस जगत में नहीं बल्कि हममें ही कहीं दबी और ढकी पड़ी हैं और इसलिए इन्हें इस बाह्य जगत में माना भी नहीं जा सकता, खोजा भी नहीं जा सकता, और पाया भी नहीं जा सकता....स्वयं के अलावा कहीं नहीं. ये चीज़ें स्वयं में ही कहीं खोयी थीं और इसलिए इनकी तलाश हमें स्वयं में ही करनी होगी.
अपने ‘सामाजिक परिवार’ में रहकर मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि इस परिवार का प्रत्येक सदस्य इस दुनिया में रहकर भी भूला हुआ है. मैं भी भूला हुआ हूँ. शायद एक दिन अपनी आत्म-चेतना को पाकर मैं अपने परिवार के लिए विस्मृत या भूला हुआ हो जाऊं, मगर उस दिन, उस क्षण, उल्लास के उस क्षण में ऐसा अनुभव करूंगा कि जैसे मैंने अपने आप को पा लिया है. मेरा खोया, मेरा सोया, मेरा हमदम मुझे मिल गया है.
बार-बार मेरे अंतर में यही सवाल उठता रहता है कि मैं कौन हूँ... मैं कौन हूँ... मैं कौन हूँ... मैं कौन हूँ.
संध्याकाल, सोमवार ०२/०६/१९८१; नवादा, बिहार
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आज दोपहर से मन बहुत विचलित लग रहा था. अकारण मैं चिडचिडा हो उठा था और ऐसी भावनाएं उठ रही थीं कि किसे मारूँ, किसे पीटूं, क्या तोडूं, और क्या फोडूं. बेचैनी का एक गुबार सा छा गया था मेरे अन्दर. कमरे के अकेलेपन एवं स्वयं की चुप्पी से उकताहट हो गई थी. किसी से बोलूं, किसी को प्यार करूँ. कहीं घूमने निकलूं, कुछ खेलूं- ऐसी क्रियाओं के लिए मन उद्यत हो रहा था.
अपने मंझले भाई दीप भैया के नन्हें से बेटे सूरज यानि अपने भतीजे से खूब लाड़ किया, उसके साथ खेला, उससे बातें की और शाम के समय बाहर घूमने को निकल पड़ा.
मन की बेचैनी लुप्त हो गई और जी स्थिर हो गया. ठीक उसी तरह जैसे भोजन के उपरांत जठराग्नि शांत हो जाती है.
प्रातःकाल ०८.१५, मंगलवार ०३/०६/१९८१; नवादा, बिहार
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पुनः कल जैसी मानसिक अवस्था से गुजरने लगा हूँ और मन में कल जैसी ही झल्लाहट होने लगी है. बेचैनी बढ़ती जा रही है और बड़ा अजीब लग रहा है. अनायास क्रोध की लहरें उठ-उठ रही हैं.
कुर्सी पे बैठकर पढ़ रहा हूँ मगर जैसे यह काम ज़बरन कर रहा हूँ. झल्लाहट सी हो रही है, न जाने किस चीज़ पे. लग रहा है चिल्लाऊं, नाचूं, गाऊं, हसूं, रोऊँ, दौडू, आदि-आदि.
किताबें फेक दूँ, कमरे से भाग जाऊं....बड़ी ही अजीबोगरीब मनःस्थिति में फंस गया हूँ.
मंगलवार १६/०६/१९८१; नवादा, बिहार
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मुझे ये विश्वास हो चला है कि जब तक हमारी जिह्वा और हमारा मन नियंत्रण में है तब तक हमारी ज़िंदगी की गाड़ी सुचारु रूप से एवं संयत होकर चलती रहेगी; अन्यथा, वह अपना पथ खो देगी और मार्ग विहीन हो जाएगी.
जैसे किसी स्वचालित वाहन को चलाने के लिए हमें उसके एक्सीलेटर एवं हैंडल को अपने नियंत्रण में रखना होता है, उसी तरह इस जिह्वा एवं मन रूपी एक्सीलेटर एवं हैंडल को अपने वश में करना होगा ताकि हमारी ज़िंदगी रूपी गाड़ी किसी अंधकारमय खड्ड में न गिर सके, ताकि हम ज़िंदगी के पथ से दूर न हो जाएँ.
मन का पोषण विचारों से होता है जो बाहरी जगत में हमारे कर्मों का आतंरिक बिम्ब हैं. यदि हम गौर करें और कोई दिन समय निकाल कर देखें, स्वयं के भीतर पैठने की कोशिश करके देखें, तो पाएंगे कि ऐसा कोई भी क्षण नहीं है जिसमें हमारा मन विचारों की भीड़ और उसके कोलाहल से मुक्त है. इन्हीं विचारों के आकाश में, कल्पना के समुद्र में हम खोए एवं डूबे से रहते हैं और हमारा अपना विवेक मर जाता है.
शनिवार २५/०७/१९८१; नवादा, बिहार
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आज मैंने अपना एक आदर्श बनाया है कि मैं किसी वस्तु, संकट, अथवा विपत्ति को अपने ऊपर हावी नहीं होने दूंगा बल्कि मैं ही उसपर हावी हो जाऊंगा और सदैव इसी का प्रयत्न करूंगा.
मैं आंतरिक स्वातंत्र्य का मतावलंबी हूँ और मेरे विचार और मेरी वैचारिक क्षमता किसी व्यक्ति, समाज, या किसी वस्तु से कुंठित नहीं हैं- ये स्वतंत्र हैं और विवेक जिनका मार्गदर्शक है.
हमारे सामाजिक जीवन में हमारे कर्म हमारे वैयक्तिक जीवन के विचारों के प्रतिबिम्ब हैं जो प्रतिदिन के जीवन की ऐनक में साफ़ नज़र आते हैं. एक स्वतंत्र व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में सक्षम है लेकिन स्थितियों के दबाव में जकड़ा व्यक्ति नहीं. ज़ंजीरों में जकड़ा हाथी चाहे कितना भी विशाल क्यूँ न हो, हरी शाखाओं और पत्तियों को देख तो सकता है मगर पा नहीं सकता.
मैं मानता हूँ कि मेरी आत्मा और चेतना स्वतंत्र है जिन्हेंकुछ भी अवरुद्ध नहीं कर सकता.
© राज़ नवादवी
‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’
Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, मेरे लेखन को पढ़ने एवं अपने विचारों से अवगत कराने का सादर आभार!
आदरणीय राज नवादवी जी आपके पन्ने पढ़ कर सच का मतलब समझ मे आने लगा । आपका आभार पन्ने साझा करने के लिए ।
आदरणीय श्री श्याम जुनेजा साहेब, उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद! सादर, राज़.
वाह वाह- 'उड़ता परिंदा देख कर पिंजरे का पक्षी रो उठा , मेरे जैसा वो गगन में पर फैलाता कौन है ।,. बहुत खूब बयाँ किया आपने भाई नीरज जी. मनुष्य जीवन सचमुच अमूल्य है जैसा कि सभी संतों और फकीरों ने कहा है; मनुष्य की परेशानी मगर यह है कि इससे आगे की योनि स्थूल में न होकर सूक्ष्म जगत में है जो उदाहरणार्थ समक्ष नहीं होने के कारण प्राप्ति की प्रेरणा की कमी पैदा करता है. खनिज से लेकर पशुओं तक कोई पुनर्जन्म नहीं, सिर्फ क्रमिक विकास है, मगर मनुष्य जीवन में आकर पुनर्जन्म की एक न ख़त्म होने वाली सी श्रृंखला में हम सब फंस जाते हैं और आगे की यात्रा हेतु सद्गुरु का होना नितांत आवश्यक हो जात है. प्रभु से आपके लिए प्रार्थना करता हूँ. - राज़
बहुत बहुत हार्दिक शुभकानाएं और दिली आभार
आपकी इस प्रस्तुति के लिए आदरणीय राज साहब ।
क्या कहूँ राज साहब आपकी डायरी तो ज़िन्दगी के बड़े बड़े
राज खोल रही है , मेरी बड़ी उत्सुकता है आपकी डायरी में
बात जब ज़िन्दगी की वास्तविकता से होती है तो मेरी रूचि
हो जाती है उसमे और एक महत्व पूर्ण प्रश्न उठाया है आपने
मै कौन , अगर अपने अशांन्ति के क्षणों में आदमी खुद से ये कहने लगे
पहले मुझे पता चलना चाहिए मै कौन हूँ बाकी सारी झंझट बाद में
अरे पहले झंझट लेने वाले का तो पता तो चले मै कौन हूँ जो इतनी चिंताएं
किये जा रहा हूँ इतनी अभिलाषाएं किये जा रहा , आखिर मेरा अस्तित्व क्या है
मै क्यों हूँ कैसे हूँ कहाँ हूँ कब तक हूँ और धीरे धीरे भीतर गहरी शान्ति
लगती है ये वो प्रश्न है जो तुम्हे तुम्हारी चेतना के करीब ले जाता है
जो तुम्हे तुम्हारे जीवन स्रोत के करीब ले जाता है जहाँ से तुम्हारा जीवन
प्रति क्षण प्रवाहित हो रहा है और विचारों की अधिकता तुम्हे उस से दूर कर देती है
इसलिए आत्मा में जीने वाले बुद्ध पुरुष शांत जल की भांति मौन रहते हैं ,
एक बार अगर किसी को अपनी चेतना का स्वाद आ जाए तो उसके आगे सब
संसार व्यर्थ हो जाता है सिद्धार्थ नामका सम्राट यूँ नही भिक्षु ही गया आखिर
उनको ऐसा क्या मिल गया मै बुद्धा को देखता हूँ तो बस देखता ही रह जाता हूँ ,
और दिल से एक ही आवाज़ आती है
उड़ता परिंदा देख कर पिंजरे का पक्षी रो उठा ,
मेरे जैसा वो गगन में पर फैलाता कौन है ।
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