पहचान
हटा कर धूल जब देखा अतीत के आईने ने हमको,
उसने भी न पहचाना और अनजान-सा देखा हमको,
सालों बाद हमसे पूछे बहुत सवाल पर सवाल उसने,
हर सवाल के जवाब में हमने नाम तुम्हारा था दिया।
ऐसा रहा तस्सवुर तुम्हारा इस सूनी ज़िन्दगी पर मेरी,
नींद आए तो देखे यह हर धुँधले ख़वाब में तुमको,
न आए नींद तो अँधेरे में यह अंधे की टूटी लकड़ी-सी,
ढूँढती है यूँ .. यहाँ, वहाँ, हर मोड़, हर चौराहे पर तुमको।
पूछे जो आईना तुमसे तो तुम भी कह देना झूठ उससे,
वह भूल थी तुम्हारी कि हाँ तुमने कभी चाहा था हमको,
वरना ज़िन्द्गी की इन वीरान-सुनसान-तंग गलियों में
इश्क के दर्द से तुम्हारी भी तो कभी कोई पहचान न थी।
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(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सदैव समान आपका स्नेह और आशीर्वाद मिला,
आपका आभारी हूँ, आदरणीय सौरभ भाई।
सादर,
विजय निकोर
पहले तो भ्रम हुआ कि आपकी कोई छंदबद्ध रचना प्रस्तुत हुई है. लेकिन जो हुई है वो क्या खूब हुई है.
आदरणीय, बधाई इस भावाभिव्यक्ति पर.. .
शुभ-शुभ
आदरणीया मंजरी जी:
//भावनाओं का समन्दर पूरे उफ़ान पर नज़र आ रहा है . बहुत सुन्दर रचना//
आपकी सराहना मन को आनंदानुभूति से स्पंदित कर गई।
हार्दिक आभार, आदरणीया।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय निकोर जी भावनाओं का समन्दर पूरे उफ़ान पर नज़र आ रहा है . बहुत सुन्दर रचना
आदरणीय राम जी,
रचना आपको अच्छी लगी, सराहना के लिए हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय जितेन्द्र जी:
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार।
सादर,
वि्जय निकोर
//मन में गहरे तक बसे भाव बिना किसी बनावट के अभिव्यक्त हुए हैं //
आदरणीया प्राची जी:
प्रतिक्रिया प्रेषित करने के लिए हृदय से आभारी हूँ।
आपकी प्रतिक्रिया मेरी प्रेरणा का स्रोत है। उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक धन्यवाद।
सादर,
विजय
आदरणीय विजय मिश्र जी:
मेरे लिए किसी भी रचना में भावनाओं का संप्रेषण मेरी उंगली पकड़ता है, और कभी-कभी
ऐसे में बाढ़ आ जाती है, भावनाएँ शब्दों से रीस करती हैं। सुचिंतित प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।
स्नेह बनाए रखें।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय बृजेश जी:
आपका सदैव की तरह स्नेह मिला, आभारी हूँ।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय बसंत नेमा जी:
रचना के भाव आपको पसंद आए ...प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
सादर,
विजय निकोर
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