कविता - छोड़ दे झंडे !
छोड़ दे झंडे और झंखाड़े
उठाले परचम पकड़ अखाड़े
मत फंदों और जाल में फंस तू
ज़हर बुझे दातों से डंस तू
देख कोई भी बच न पाए
व्यूह तिमिर का रच न पाए
षड्यंत्रों की खाल उधेड़
ऊन भरम है ख़ूनी भेड़
भीतर भीतर काले दांत
मूल्य हज़म हों ऐसी आंत
कर पैने कविता के तीर
अन्धकार की छाती चीर
विमुखों और उदासीनों को
भाले बरछी संगीनों को
जो चेतन हैं तू उनको भी
दीनों और कुलीनों को भी
होम हेतु भरती करता जा
आग ग़दर की तू भरता जा
देख उजाला तब आएगा
हर भूखा रोटी पायेगा
ठूहे ढह जायेंगे सारे
चमकेंगे अपने भी तारे
भाग्य नहीं पुरुषार्थ रहेगा
सदा सत्य और सत्य कहेगा
सत्य सभी के हक़ में होगा
कोई रंक न राजा होगा
हाथ हाथ को काम मिलेगा
काम के बदले दाम मिलेगा
सचमुच दिन ऐसा आएगा
हर कबीर खुल कर गायेगा
चौराहों और चौबारों पर
आरी छेनी औज़ारों पर
शिला लेख सा अंकित होगा
मानव कभी न वंचित होगा
हक़ हकूक और अख्तियार से
धर्म न्याय अपनों के प्यार से
समता का डंका बोलेगा
बंद पड़े जो पथ खोलेगा
आज यही संकल्प करेंगे
संकल्पों में रक्त भरेंगे
जो वजूद खोये हम पायें
राजपथों पर हम भी जाएँ
- अभिनव अरुण
[22082013]
* सर्वथा मौलिक अप्रकाशित - अभिनव .
Comment
वाह ! क्या लिखते है आप! हार्दिक बधाई ! सुन्दर , सार्थक , प्रभावशाली रचना के लिए कोटि कोटि बधाई अवम सुभकामनाये !
अभिनव भाई , बहुत बढ़िया कविता , बहुत खूब !!
षड्यंत्रों की खाल उधेड़
ऊन भरम है ख़ूनी भेड़
भीतर भीतर काले दांत
मूल्य हज़म हों ऐसी आंत
कर पैने कविता के तीर
अन्धकार की छाती चीर ------- वाह वा !!
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