तुम सोई
सपनों में खोई
अधर मंद मुस्काते हैं
ये सपने
चुपके से आकर
आखिर क्या कह जाते हैं।
बागों में
चंपा महकी है
मंद हवा
बहकी बहकी है
घनी रात को, तारे आकर
रूप नया दे जाते हैं।
रंग भरे
यह श्वेत चांदनी
कण कण में
इक मधुर रागिनी
नींद भरे बोझिल ये नयना
सुध बुध सब हर जाते हैं।
.
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ0 बृजेश भाई जी, सादर प्रणाम! वाह! सुर ताल में हृदय स्पर्शी गीत! सुन्दर प्रस्तुति के लिए तहेदिल से बधाई स्वीकारें। सादर,
बृजेश भाई , अति सुन्दर गीत रचना , वाह वाह् , आनन्द आ गया !! बहुत बधाई !!
आदरणीया मंजरी जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय ब्रुजेश ी रात के ओस सी भीगी रचना . पढ कर सुकून लगा . हर्दिक बधाई
आदरणीय आशुतोष जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
आदरनीय नीरज जी ..अलंकारों से सजी मनमोहक भाव मई शसक्त रचना ...आनंद आ गया ...सदर बधाई
अथाह सीमा तक के गहरे भाव रचना में समाये हुए है
बहुत बहुत बधाई आदरणीय बृजेश जी!
आदरणीय नीरज जी आपके शब्दों ने बहुत बल दिया मुझे। आपने गाकर देखा और यह उस कसौटी पर खरी उतरी, यह जानकर संतुष्टि हुई। आपका हार्दिक आभार!
संगीत में सजी सुरमयी आपकी कविता पढ़कर
आज ये ज़रूर सीखने को मिला की व्याकरण की
लय में आने पर कविता किस तरह संगीत में स्वतः
आ जाती है और शायद अगर कविता ठीक ठीक
संगीत में लिखी जाए तो शायद उसके
कदम व्याकरण की राहों पर भी ना डगमगाएं
पहली बार आपकी कविता मेरे गाने में आयी
है और जब एक लाइन को बार बार गाता हूँ
तो उसके भावों में डूबता हूँ , मेरे लिए ये
कविता का रसपान करना है , और एक
सुन्दर सुहानी रात की बहुत शीतल और बहुत
ठंडी अनुभूति हुयी आपकी कविता के गायन से ।
आदरणीय बृजेश जी
ह्रदय के अहो भाव से बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं ।
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