साँझ ढली तो आसमान से धीरे-धीरे
रात उतर आई चुपके-चुपके डग भरती
स्याह रंग से भरती कण-कण वह यह धरती
शांत हुआ माहौल और सब हलचल धीरे
कल-कल करती धारा का स्वर नदिया तीरे
वरना तो, सब कुछ शांत, भयावह रूप धरे
जीव सभी चुप हैं सहमे, दुबके और डरे
कुछ अनजानी आवाज़ें खामोशी चीरे
मन सहमा जब भीतर यह काली पैठ हुई
लोभ और मोह कितने उसके संग उपजे
भ्रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके
साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग गई
सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी
जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!
मेरी इच्छा है कि यह विधा हिन्दी में स्थापित हो।
आपका यह कहना सही है कि यह विधा गेयता की पक्षधर है। अभी मेरे प्रयासों में तुकांत और गेयता को लेकर बहुत कार्य करने की आवश्यकता है, यह मुझे भी लगता है। इस क्षेत्र में आपका मार्गदर्शन मेरे लिए महत्वपूर्ण होगा। दरअसल, इस विधा पर मेरे जो भी प्रयास रहे वह सिर्फ अपने को इसके नियमों में संयत करने के प्रयास भर हैं। अभी मुझे इस विधा में अपनी कलम को साधने में बहुत श्रम करना है। आपको सतत मार्गदर्शन मेरी कठिनाइयों को निश्चित ही सरल करेगा।
सादर!
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
भाई बृजेशजी, सॉनेट पर हुआ आपका गंभीर प्रयास सुखकर लगा. इसकी तो पहली बधाई.
दूसरी बधाई कि आप इस विधा पर वास्तविक रूप से गंभीर हैं.
परन्तु आत्मीय बधाइयों के साथ-साथ एक बात अवश्य कहना चाहूँगा जो हिन्दी-सॉनेट विधा में शास्त्रीय कविता-प्रयास को इन्फ्यूज किये जाने की है. विश्वास है, आप मेरे कहे को स्वीकार कर अपने माध्यम से जग-जाहिर कर देंगे. सॉनेट वस्तुतः गेयता का पक्षधर है. इसके हिन्दी प्रारूप में इस तथ्य के प्रति हम अवश्य संवेदनशील बनें. और साथ ही, कविता की दशा का निर्वहन भी आवश्यक है. यथा, तुकान्तता या पंक्तियों (पदों में) में अंत्यानुप्रास की उपस्थिति और उसका सकारात्मक प्रभाव.
गीत, छंद या कोई गेय रचना भारतीय मानस की जीवंतता का परिचायक है. धुन, लय और सुर हमारी धमनियों में रक्त के साथ दौड़ते हैं. इसको बिसरा कर या इस तथ्य से आँखें चुरा कर हम एक रचना प्रयास-कर्ता के तौर अपनी कमियों भले छुपा लें, लेकिन काव्य-तत्त्व के प्रति अपने दायित्वों से भाग नहीं सकते. मैं आपको नहीं, बल्कि आपके माध्यम से इस तथ्य को जग-जाहिर कर रहा हूँ.
अपनी कार्यालयी एवं अन्यान्य व्यस्तताओं के कारण आपके सॉनेट वाले लेख में मैंने अपनी बात को आधे पर ही रोका हुआ है. इसका भान है मुझे. वहाँ पुनः अवश्य आऊँगा.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय जितेन्द्र जी बहुत बहुत धन्यवाद!
आदरणीया महिमा जी आपका बहुत बहुत आभार!
आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार!
सुंदर भावनात्मक रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीय बृजेश जी
मन सहमा जब भीतर यह काली पैठ हुई
लोभ और मोह कितने उसके संग उपजे
भ्रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके
साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग गई........... वाह
सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी
जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी......सुंदर प्रस्तुति आदरणीय बधाई आपको
सुंदर भाव पूर्ण सोनेट की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारिये आदरणीय बृजेश जी!
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