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गज़ल ----" इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है "

2122     2122     2122

पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से      

क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से

मंज़िलों के वास्ते कितने हैं पागल  

हर किसी को पूछना है तिश्नगी से         

इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है

लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से

आदमीयत की महज़ तो आरजू है

और हमको चाहिये क्या आदमी से

धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें

धूल खाते लटकते जो अलगनी से

.

          गिरिराज भंडारी

 मौलिक एवँ अप्रकाशित 

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2013 at 4:26pm

:-))))))))))


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 3:09pm

आदरणीय सौरभ भाई , आपका आभार , गलती बताने के लिये !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 3:06pm

संजय भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , हौसला अफज़ाई के लिये !!

Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on September 1, 2013 at 2:37pm

इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है,

लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से। बहुत खूब....

आदरणीय गिरिराज जी खूबसूरत गजल के लिए सादर बधाई स्वीकारें....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2013 at 2:28pm

//..झूलते जो अलगनी से.//

लटकते = १२२  यानि यह मात्रा समूह यहाँ के मिसरे के अनुसार काम में नहीं आना.

झूलते = २१२ .. सही है

आप समझ गये कि मेरा इशारा कहाँ है और आपने मिसरे को दुरुस्त कर लिया, आदरणीय, यही सबसे बेहतर तरीका है सीखने-सिखाने का.

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 1:44pm

श्याम भाई , आपकी लेख्ननी का मै कायल हूँ , जब से ओ बी ओ मे आया पढ़ रहा हूँ , मुझसे अपनी तुलना न करें !! मै तो सच मे प्रौढ़ शिक्षा वाला विद्यार्थी हूँ ! बेतरतीब डायरी भर के रखता था , खुद ही पढ़ के खुद खुश हो लेता था !! 59 वें साल मे बच्चों के कहने पर बाहर आया और सीखने की शुरुवात किया !!  सैकडों बे बहर गज़ल डायरी मे रोती पडी है !! अब कुछ समझ आ रही है !! मुझसे अपनी तुलना न करें ! कहीं ये मार्ग दर्शन से बचने का तरीक़ा तो नही ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 12:49pm

श्याम भाई , मै तो अभी  के जी 1 मे भर्ती हुआ हूँ , आप सुधि जनो का के मार्ग दर्शन की बहुत जरूरत है !! बुरा मानने की तो मै कभी सोच भी नही सकता !! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 12:30pm

वाह वा श्याम भाई , मज़ा आगया -

बेसबब ही पूछते हो हर किसी से

पूछ कर कूदे थे क्या तुम बेबसी में ----- क्या बात है !!

आपकी सराहना के लिये हार्दिक आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 11:44am

आदरणीय सौरभ भाई , आपका हारदिक आभार !! आप सुधि जनो का साथ भी तो जैसा चाहिये वैसा मिल रहा है , सुधार तो धीरे धीरे होना ही है !!  आदरणीय , अगर लटकते  की जगह " झूलते जो अलगनी से " कर दिया जाये तो शायद गलती सुधर जाये !! कृपा कर बतायें !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2013 at 12:49am

आपकी ग़ज़ल मॆं पकड़ पुख़्ता होती जा रही है. बहुत सही प्रयास हुआ है. आप बह्र निभा ले गये हैं. इसके लिए बधाई .

बस इस मिसरे को देख लें - धूल खाते लटकते जो अलगनी से

शुभ-शुभ

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