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क्या हवायें आज कुछ पैग़ाम ले के आ रही है
धूप भी कुछ गा रही है, छाँव भी इतरा रही है
बेख़याली मे कहीं हम हद के बाहर तो नहीं है
आदमीयत आज बैठी क्यूँ यहां शर्मा रही है
इस जगह पर तो ख़िज़ां ने भी बहारें ओढ़ ली है
इसलिये ही ज़िन्दगी हर बार धोखा खा रही है
गुफ़्तगू कुछ तो मोहब्बत और नफ़रत मे चली है
वो भी कुछ समझा रही है ये भी कुछ समझा रही है
दोस्त मेरे भूख ज्यादा आज ही क्यों लग रही है
जब मुझे कुछ और ज़्यादा जेब भी तरसा रही है
अश्क मेरी आंख से बहना ही क्या काफ़ी नही था
क्यूँ ये बदली आज पानी इस तरह बरसा रही है
बातिलों में वज़्न कितना ?झूठ की औकात कितनी ?
क्यों अन्धेरों में सुलह से रौशनी घबरा रही है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित्
Comment
आदरणीया मंजरी जी , उत्साह वर्धन के लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद , आभार !!
आदरणीय सौरभ भाई , आपने सही बताया , आदरणीय वीनस भाई ने भी यही कहा है , आगे से ध्यान रखूंगा ,दोष को समझ लिया हूँ !
आपका बहुत बहुत आभार , आपके मार्ग दर्शन की ज़रूरत हमेशा रहेगी !!
एक बड़ा प्यारा सा ऐब है तकाबुले रदीफ़. उसे देख लीजियेगा, भाईजी.
वैसे आपकी कहन में जान है. शिल्प आदि की परेशानी शुरुआती दौर की चीज़ें हैं ..
शुभ-शुभ
बेख़याली मे कहीं हम हद के बाहर तो नहीं है
आदमीयत आज बैठी क्यूँ यहां शर्मा रही है आदरणीय गिरिराज भन्डारी जी वक्त सोच विचार का है . बिलकुल सही फ़रमाया आपने. बहुत बहुत बधाई .
आदरणीय , आशुतोष आपकी सराहना मेरे लिये उत्साह वर्धन का कारक है !! दिली आभार !!
आदरनीय गिरिराज जी ..हर शेर अपने आप में बिशिस्त
दोस्त मेरे भूख ज्यादा आज ही क्यों लग रही है
जब मुझे कुछ और ज़्यादा जेब भी तरसा रही है
अश्क मेरी आंख से बहना ही क्या काफ़ी नही था
क्यूँ ये बदली आज पानी इस तरह बरसा रही है...ये शेर मुझे बेहद पसंद आये ...ढेरों बधाई के साथ
आदरणीय डा. प्राची जी आपने सही कहा है , जहां गलतियां है , सुधार करूंगा !! आपकी सरहाना के लिये तहे दिल से शुक्रिया !!
आदरणीय ,विजय भाई जी , सुधी जनो की सराहना सच मे हिम्मत देती है , आपका बहुर आभार !!
आदरणीय गिरिराज जी:
गज़ल के सभी अश’आर अच्छे लगे। हार्दिक बधाई।
सादर,
विजय निकोर
क्या हवायें आज कुछ पैग़ाम ले के आ रही है. ..........हवाएं बहुत वचन और है एक वचन ?? क्या हवा भी आज कुछ पैगाम लेकर आ रही है ...ऐसे किया जा सकता है
धूप भी कुछ गा रही है, छाँव भी इतरा रही है
बेख़याली मे कहीं हम हद के बाहर तो नहीं है .......यहाँ भी है की जगह हैं होना चाहिये
आदमीयत आज बैठी क्यूँ यहां शर्मा रही है....................बहुत शानदार कथ्य , वाह !
इस जगह पर तो ख़िज़ां ने भी बहारें ओढ़ ली है
इसलिये ही ज़िन्दगी हर बार धोखा खा रही है
गुफ़्तगू कुछ तो मोहब्बत और नफ़रत मे चली है
वो भी कुछ समझा रही है ये भी कुछ समझा रही है.........वाह वाह ! वाह वाह !
दोस्त मेरे भूख ज्यादा आज ही क्यों लग रही है
जब मुझे कुछ और ज़्यादा जेब भी तरसा रही है................. क्या बात कही है, शानदार
अश्क मेरी आंख से बहना ही क्या काफ़ी नही था
क्यूँ ये बदली आज पानी इस तरह बरसा रही है ....उफ्फ ! बहुत खूब
बातिलों में वज़्न कितना ?झूठ की औकात कितनी ?
क्यों अन्धेरों में सुलह से रौशनी घबरा रही है........वाह वाह !
इस शानदार गज़ल पर हार्दिक बधाई पेश है आ० गिरिराज भंडारी जी
सादर.
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