बशर जब से यहाँ पत्थर में ढलना चाहता है
ये बुत भी आज पत्थर से निकलना चाहता है
रिहाई मांगता है आदमी दुनिया से फिर भी
जहाँ भर साथ में लेकर निकलना चाहता है
तुम्हारी जिद कहाँ तक रोक पाएगी सफ़र को
ये मौसम भी किसी सूरत बदलना चाहता है
जिसे पत्थर कहा तूने अभी तक मोम है वो
जरा सी आंच तो दे दो पिघलना चाहता है
भले सूखा लगे दरिया, मगर पानी वहां पर
जरा सा खोद कर देखो, निकलना चाहता है
बशर= आदमी
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
shubhra sharma ji,Shyam Narain Verma ji,विजय मिश्र ji, Sonam Saini ji,अरुन शर्मा 'अनन्त' ji,गिरिराज भंडारी ji का दिल से शुक्रिया , सादर
बहुत बहुत शुक्रिया, अन्नपूर्ण बाजपाई जी
सादर
आदरणीय ललित जी बहुत ही उम्दा अल्फ़ाजों से नवाज़ी गई आपकी इस सुंदर गजल के लिए आपको बहुत बधाई ।
आदरणीय डॉ ललित जी ,
\जिसे पत्थर कहा तूने अभी तक मोम है वो
जरा सी आंच तो दे दो पिघलना चाहता है\
क्या खूब कही है आपकी गजल , वाह वाह .........बधाई
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
भले सूखा लगे दरिया, मगर पानी वहां पर
जरा सा खोद कर देखो, निकलना चाहता है............ वाह वाह क्या खूब लिखा है आदरणीय ललित कुमार जी...
वाह वाह आदरणीय बेहद शानदार धारदार ग़ज़ल आनंद आ गया अंतिम तीन अशआरों ने तो दिल को स्पर्श कर लिया उनके लिए विशेष तौर पर दिली दाद कुबूल फरमाएं.
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